लोककल्याणकारी राज्य की विशेषताएं

लोककल्याणकारी राज्य और भारत । Public Welfare State and India in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा ।
3. लोककल्याणकारी राज्य की विशेषताएं या लक्षण ।
4. लोककल्याणकारी राज्य के कार्य ।
5. लोककल्याणकारी राज्य और भारत ।
6. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

कुछ व्यक्तिवादी राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं और अपने सीमित अर्थ में उसके कार्यक्षेत्र को अधिक व्यापक नहीं बनाना चाहते । भूमि और जन के साथ निःसन्देह राज्य का होना अनिवार्य तत्त्व है ।
यह निश्चित रूप से सत्य है कि कोई भी राज्य अपने नागरिकों के लिए प्रत्येक क्षेत्र में सुख-सुविधाएं प्रदान करना चाहता है ।
अपने समस्त साधनों एवं शक्ति का उपयोग वह जनता की भलाई में करना चाहता है । यदि कोई राज्य इस तरह देश की सम्पूर्ण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, कल्याणकारी योजनाओं को जनता को केन्द्र में मानकर लागू करता है, तो वह लोककल्याणकारी राज्य कहलाता है ।

2. लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा:

लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा अत्यन्त प्राचीनकाल से ही हमारे देश में रही है । प्राचीन युग में राज्य को नैतिक कल्याण का साधन माना जाता था । रामायण काल में तो राम-राज्य की अवधारणा इसी लोककल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त पर आधारित थी ।
हमारे धार्मिक अन्यों में यहां तक लिखा है कि राजा अपनी प्रजा का हित नहीं चाहता और अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह नरक का अधिकारी होता है । चाणक्य हो या फिर अरस्तु या प्लेटो, इन्होंने भी लोक कल्याण कारी राज्य की अवधारणा को महत्त्व दिया है ।
लोक कल्याण कारी राज्य से तात्पर्य किसी विशेष वर्ग का कल्याण न होकर सम्पूर्ण जनता का कल्याण होता है । इस तरह सम्पूर्ण जनता को केन्द्र मानकर जो राज्य कार्य करता है, वह लोक कल्याणकारी राज्य
है ।
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के सम्बन्ध में इंसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंसेस के विचार हैं: “लोककल्याणकारी राज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है, जो अपने सभी नागरिकों को न्यूनतम जीवन रत्तर प्रदान करना अपना अनिवार्य उत्तरदायित्व समझता है ।”  प्रो॰ एच॰जे॰ लास्की के अनुसार: “लोककल्याणकारी राज्य लोगों का ऐसा संगठन है, जिसमें सबका सामूहिक रूप से अधिकाधिक हित निहित है ।”

3. लोककल्याणकारी राज्य की विशेषताएं या लक्षण:

लोककल्याणकारी के आदर्श स्वरूप के लिए निम्नलिखित लक्षण या विशेषताओं की आवश्यकता अनिवार्य है:
1.आर्थिक सुरक्षा:  इसके बिना लोककल्याणकारी राज्य का कोई महत्त्व नहीं है; क्योंकि सबके लिए रोजगार. न्यूनतम जीवन की गारण्टी, अधिकतम आर्थिक समानता होनी चाहिए । यदि शासन तन्त्र में राजसत्ता आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न लोगों के हाथों में होगी. तो वह लोककल्याणकारी राज्य की श्रेणी में नहीं आयेगा ।
2.राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था:  लोककल्याणकारी राज्य को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करे कि राजनैतिक शक्ति सम्पूर्ण रूप से जनता के हाथ में हो । शासन व्यवस्था लोकहित में हो ।
3. सामाजिक सुरक्षा:  लोककल्याणकारी राज्य का प्रमुख लक्षण यह होना चाहिए कि वह सामाजिक सुरक्षा से साथ-साथ समाज में रंग, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वंश, लिंग के आधार पर भेदभाव न करे ।
4. राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि:  राज्य को लोककल्याण सम्बन्धी वे सभी कार्य करने चाहिए, जिससे नागरिकों की स्वतन्त्रता प्रभावित न हो और वे अपने कार्यक्षेत्र में पूर्ण क्षमता एवं स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सके ।
5. विश्वशान्ति एवं वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना:  लोककल्याणकारी राज्य का स्वरूप राष्ट्रीय न होकर अन्तर्राष्ट्रीय होता है । अत: राज्य विशेष को चाहिए कि वह विश्वकल्याण की भावना से सम्पूर्ण मानवता के लिए कार्य करे ।
4. लोककल्याणकारी राज्य के कार्य:  लोककल्याणकारी राज्य के कार्य को मोटे तौर पर दो भागों: 1. अनिवार्य कार्य और 2. ऐच्छिक कार्य-में विभाजित किया जा सकता है । अनिवार्य कार्य तो प्रत्येक राज्य को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए अनिवार्य रूप से करने पड़ते हैं । ऐच्छिक कार्य तो राज्य की परिस्थितियों एवं शासन के दृष्टिकोण पर निर्भर होते हैं ।
लोककल्याणकारी राज्य का दायित्व है कि वह ऐच्छिक व अनिवार्य दोनों को महत्त्व दे । लोककल्याणकारी राज्य के अनिवार्य कार्य हैं: 1. बाह्य आक्रमणों से राज्य की रक्षा करना । उस हेतु विभिन्न प्रकार के सैन्य उपकरणों एवं साधनों की भी व्यवस्था करना ।
2. राज्य का दूसरा अनिवार्य कार्य राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था कायम करना, नागरिकों को कानून के तहत सुशासन प्रदान करना, पुलिस की व्यवस्था करना और नागरिकों के कर्तव्यों का नियमन करना है ।
3. लोककल्याणकारी राज्य को शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था करनी चाहिए ।
4. लोककल्याणकारी राज्य को स्त्री-पुरुष, बच्चों तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों का इस प्रकार नियमन करना चाहिए कि उनके बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न न हो । आर्थिक समानता के आधार पर नागरिकों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना राज्य का अनिवार्य कार्य है ।
5. लोककल्याणकारी राज्य का अनिवार्य कर्तव्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग और सद्‌भावना स्थापित कर विश्वशान्ति व वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को बढ़ाना है ।
6. सभी को शिक्षा के समान अवसर प्रदान करना, इसके साथ 14 वर्ष तक के लिए निःशुल्क अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना । विश्वविद्यालय, तकनीकी, औद्योगिक, महिला, प्रौढ़ शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना ।
7. नागरिकों के स्वास्थ्य रक्षा हेतु समुचित उपाय करना ।
8. उद्योग एवं व्यापार पर नियन्त्रण करना ।
9. कृषि की उन्नति हेतु राज्य को उत्तम बीज, खाद एवं सिंचाई के समुचित साधनों की व्यवस्था करना, कृषकों को कम ब्याज पर देना ।
10. यातायात एवं संचार के लिए सड़कों, रेलों, जल तथा वायुमार्गो, डाक, तार, टेलीफोन, रेडियो, दूरदर्शन आदि की व्यवस्था करना ।
11. श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए श्रमहितकारी कानून बनाना ।
12. शारीरिक रूप से अपंग एवं वृद्ध व्यक्तियों के लिए इस प्रकार शिक्षण और प्रशिक्षण की व्यवस्था करना कि वह अपनी जीविकोपार्जन स्वयं कर सकें । इसके लिए वृद्धों और अपंगों के लिए पेंशन इत्यादि की व्यवस्था करना ।
13. प्रत्येक राज्य में कला, साहित्य, विज्ञान को प्रोत्साहन देना ।
14. नागरिकों के लिए आमोद-प्रमोद व मनोरंजन की व्यवस्था करना ।
15. प्राकृतिक सम्पदा के अधिकाधिक उपयोग हेतु राज्य को प्रेरित करना ।
16. सामाजिक कुरीतियों में सती प्रथा, बालविवाह, बहुविवाह, अनमेल विवाह, दहेज प्रथा, मृत्युभोज, पर्दाप्रथा तथा धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध कानून बनाकर उसे समाप्त करना ।
17. बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को रोटी, कपड़ा, मकीन जैसी जीवनरक्षक आवश्यक व मूलभूत सुविधाएं प्रदान करना ।
18. सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में राज्य के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए कार्य करना ।
19. आर्थिक नियोजन, निर्धनता का अन्त, उद्योग व्यापार एवं कृषि का नियमन एवं विकास करना ।

6. लोककल्याणकारी राज्य और भारत:

भारत एक लोककल्याणकारी राज्य है । प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान काल तक इसी लोककल्याण की भावना का निरन्तर विकास होता रहा है । महात्मा गांधी, नेहरू, राममनोहर लोहिया, विनोबा भावे आदि ने भारत को लोककल्याणकारी राज्य बनाने हेतु विभिन्न प्रयास किये । स्व॰ इंदिरा गांधी ने बीस सूत्रीय कार्यक्रम लागू कर, स्व॰ राजीव गांधी ने भी लोककल्याणकारी राज्य के स्वप्न को आगे बढ़ाया ।
वर्तमान प्रधानमन्त्री भी इसी दिशा में कार्य कर रहे हैं । समाजवाद, धर्मनिरपेक्षतावादी, सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना तथा अवसरों की समानता लोककल्याणकारी राज्य भारत के ही हैं । राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व सिद्धान्त ऐसे दिशा निर्देश हैं, जो भारत को लोककल्याणकारी राज्य के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं ।

7. उपसंहार:

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि लोककल्याणकारी राज्य जनता की भलाई के लिए ही कार्य करता है । लोककल्याणकारी राज्य अपनी नीतियों, सिद्धान्तों और आदर्शो में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करता है, जिससे व्यक्तिगत एवं सामूहिक कल्याण सम्भव हो सके ।
राज्य के नागरिकों को ऐसे पर्याप्त अवसर सुलभ हो सकें, जिससे वे अपना सर्वांगीण विकास कर सकें । लोककल्याणकारी राज्य अपने सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सुरक्षा प्रदान करता है, जो सार्वजनिक हित, सार्वजनिक सुरक्षा एवं सार्वजनिक उत्थान के लिए समर्पित होता है ।

केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड question3

केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड

केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना 12 अगस्त, 1953 को भारत सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से महिलाओं, बच्चों एवं अपंगों के कल्याण कार्यक्रमों को लागू करने और समाज कल्याण गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से की गई थी। 1969 तक बोर्ड सरकार के एक अंग के रूप में कार्य करता रहा, तत्पश्चात् बोर्ड को वैधानिक दर्जा प्रदान करने के लिए इसे कपनी अधिनियम के अंतर्गत कल्याणकारी कपनी के तौर पर पंजीकृत किया गया। बोर्ड को दो जिम्मेदारियां सौंपी गई, एक तो समाज के वंचित वगों, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चे,को कल्याण सेवाएं प्रदान कराना, और दूसरी ओर, स्वैच्छिक संगठनों का भी देशव्यापी विकास करना जिनके माध्यम से यह सेवाएं उपलब्ध कराई जा सकें।

1954 में राज्यों और संघ क्षेत्रों में बोर्ड के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए और कल्याणकारी सेवाओं के विस्तार तथा विकास में केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की सहायता हेतु राज्य समाज कल्याण परामर्श बोर्ड स्थापित किए गए। राज्य बोडों की अनुशंसाओं पर विभिन्न योजनाओं के तहत स्वैच्छिक संगठनों को वित्तीय सहायता दी गई। वर्तमान में 32 राज्य बोर्ड हैं। झारखण्ड के राज्य बोर्ड का गठन हाल ही में किया गया है।

बोर्ड में एक 55 सदस्यों की सामान्य निकाय (जनरल बॉडी) तथा 15 सदस्यों वाली कार्यकारी समिति (एक्जीक्यूटिव कमेटी) होती हैं।

केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड के उद्देश्यः

1969 में कम्पनी अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत किए जाते समय केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड के निम्नलिखित उद्देश्यों का निर्धारण किया गया-

समाज कल्याण के क्षेत्र में कार्य करने वाले स्वयंसेवी संगठनों के निर्माण को प्रोत्साहित करना।समाज कल्याण से सम्बन्धित संगठनों की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं का समय-समय पर संरक्षण, शोध और मूल्यांकन के माध्यम से समुचित अध्ययन करना।समाज के कमजोर वगों, जैसे- महिलाओं, वृद्धों, विकलांगों, बच्चों, रोगियों, आदि के कल्याण से प्रेरित विभिन्न सामाजिक कल्याण सम्बन्धी गतिविधियों को प्रोत्साहित करना।विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं एवं पंचायती राज संस्थाओं को भारत सरकार द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुरूप तकनीकी एवं वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना।अनुदान प्राप्त संगठनों के कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं का मूल्यांकन करना।प्राकृतिक आपातकाल के समय राष्ट्र में कहीं भी सहायता पहुंचाने हेतु अपने संगठन के माध्यम से सहायता कार्यक्रमों का आयोजन करना।बोर्ड द्वारा बनाए गए समाज कल्याण से सम्बन्धित विभिन्न कार्यक्रमों एवं गतिविधियों के संचालन हेतु केन्द्रीय मंत्रालयों एवं राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली सहायता में समन्वय करना।सामाजिक कार्य हेतु पहलकारी विभिन्न परियोजनाएं एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करना और उन्हें आवश्यक प्रोत्साहन प्रदान करना।

केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड का कार्यालय संगठन

केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना के समय (1953 में) इसके कार्यालय संगठन में मात्र6 सदस्य थे। इनमें एक सचिव, एक कार्यालय अधीक्षक, एक लेखाकार तथा तीन सहायक थे। किन्तु वर्तमान समय में बोर्ड का एक विशाल प्रशासनिक संगठन है। बोर्ड का अध्यक्ष इसका सर्वोच्च अधिकारी होता है तथा प्रशासनिक कार्यों के लिए भारत सरकार के उप-सचिव के स्तर के समतुल्य एक सचिव होता है। बोर्ड के प्रशासनिक कार्यों के सुचारू रूप से संचालन हेतु सम्पूर्ण संगठन को निम्नलिखित 9 संभागों में विभाजित किया गया है-
 

सामाजिक-आर्थिक संभाग: इस संभाग का दायित्व बोर्ड द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों के संचालन की देख-रेख करना है।सघन कार्यक्रम संभाग: इस संभाग द्वारा 18 से 30 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं को माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में प्रविष्ट होने के लिए सहायता की व्यवस्था की जाती है।परियोजना संभाग: इस संभाग द्वारा परिवार एवं बच्चों के कल्याण सम्बन्धी कार्यक्रम, पोषण सम्बन्धी कार्यक्रम,बालवाड़ी कार्यक्रम, कामकाजी महिला छात्रावास परियोजनाओं एवं विभिन्न कार्यक्रमों से सम्बन्धित पुराने भवनों की मरम्मत हेतु अनुदान सम्बन्धी कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया जाता है।क्षेत्रीय परामर्श एवं निर्देशन संभाग: बोर्ड का यह संभाग के कार्यकरण पर सतत निगरानी रखने सम्बन्धी दायित्वों का वहन करता है।अनुदान संभाग: समाज कल्याण सम्बन्धी कार्यों में संलग्न स्वयंसेवी संस्थाओं एवं संगठनों की योजनावधि हेतु अनुदान इसी संभाग द्वारा स्वीकृत किए जाते हैं।आतंरिक नियंत्रण संभाग: यह संभाग देखता है कि बोर्ड द्वारा तैयार किए जाने वाले बजट में भारत सरकार द्वारा जारी किए गए दिशा-निर्देशों का समुचित पालन हो रहा है अथवा नहीं।वित्त एवं लेखा संभाग: इस संभाग का दायित्व बोर्ड के लिए आय एवं व्यय सम्बन्धी समस्त आहरण और वितरण सम्बन्धी कार्यों का संचालन करता है।प्रकाशन संभाग: या संभाग बोर्ड द्वारा प्रकाशित सोशल वेलफयर और समाज कल्याण-नामक क्रमशः अंग्रेजी एवं हिन्दी की पत्रिकाओं के प्रकाशन हेतु उत्तरदायी है।प्रशासन संभाग: इस संभाग द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रशासनिक एवं कार्मिक उत्तरदायित्वों, जैसे- कार्मिकों की भर्ती, पद-स्थापन, स्थानान्तरण, पदोन्नति, प्रशिक्षण, आदिका निर्वहन किया जाता है।

राज्य समाज कल्याण बोर्ड

समाज कल्याण कार्यक्रमों से सम्बंधित प्रशासनिक तंत्र प्रत्येक राज्य में उनकी संरचना एवं कार्यक्रम व्याप्ति की दृष्टि से भिन्न-भिन्न है। विभिन्न राज्यों में कई समाज कल्याण सम्बन्धी कार्यक्रमों का संचालन विभिन्न विभागों द्वारा किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, बल अपराध को शिक्षा विभाग अथवा गृह विभाग अथवा समाज कल्याण विभाग द्वारा भी देखा जाता है। केन्द्र सरकार की भांति, राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्यों में स्वयंसेवी संगठनों को अनुदान देती हैं परन्तु समाज कल्याण क्षेत्र में उनकी क्रियाएं सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर ही आधारित होती हैं।

विभिन्न राज्यों एवं संघ शासित प्रदेशों में 32 राज्य बोर्ड हैं। इनकी अध्यक्षता अकार्यालयीय अध्यक्ष द्वारा होती है जो अधिकतर प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं। बोर्ड में गैर-कार्यालयीय सदस्य होते हैं, जो सामान्यतः राज्य के प्रत्येक मुख्य जिले का प्रतिनिधित्व करते हैं और आनुपातिक रूप से केंद्रीय बोर्ड और राज्य सरकार द्वारा नामित किए जाते हैं।

राज्य बोर्ड केंद्रीय बोर्ड को राज्य स्तर पर स्वैच्छिकता के प्रोत्साहन एवं स्वैच्छिक कार्यवाही को बल प्रदान करने के लिए नए कदम उठाने की सलाह देते हैं। राज्य बोर्ड स्वैच्छिक संगठनों द्वारा बोर्ड के कार्यक्रमों को कार्यान्वित करने के मूल्यांकन के लिए एक अनुशंसित निकाय भी हैं।

राज्य बोर्डों की स्थापना पर खर्च होने वाला व्यय 50:50 के आधार पर होता है जिसमें 50 प्रतिशत सीएसडब्ल्यूबी द्वारा और शेष 50 प्रतिशत सम्बद्ध राज्य सरकार द्वारा वहन किया जाता है।

समाज कल्याण से सम्बद्ध कार्यक्रमों में राज्य स्तर पर एकरूपता लाने हेतु प्रत्येक राज्य में एकीकृत समाज कल्याण विभाग होना चाहिए। जो समाज कल्याण सम्बन्धी विषयों के संदर्भ में कार्य करे। तथापि समाज कल्याण एवं पिछड़े वर्गों के कल्याण के कार्यकारी तन्त्र अलग-अलग रखे जा सकते हैं क्योंकि पिछड़े वगों के कल्याण सम्बन्धी कार्यक्रम विकास के सम्पूर्ण क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हैं और समाज कल्याण कार्यक्रमों से भिन्न प्रकार के होते हैं, जिसमें कल्याण का तत्व अधिक प्रबल होता है। इस समेकित विभाग द्वारा देखे जाने वाले विषय वही होने चाहिए जो केंद्र के समाज कल्याण विभाग के हों।

जिला स्तर पर समाज कल्याण सेवकों के विकास के निरीक्षण एवं पर्यवेक्षण हेतु एक जिला समाज कल्याण अधिकारी होना चाहिए। वर्तमान समय में जहां सम्भव हो, पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरपालिका संगठनों का पूर्ण उपयोग कल्याण कार्यक्रमों को लागू करने की दिशा में किया जाना चाहिए। समाज कल्याण क्रियाएं सम्पादित करने हेतु स्पष्टतः निर्धारित कार्मिकों सहित इन संगठनों के अंतर्गत पृथक्-पृथक् खण्ड/अनुभाग होने चाहिए।

राज्य समाजकल्याण बोर्ड के कार्य

एक राज्य बोर्ड कै अध्यक्ष की नियुक्ति केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड के अनुमोदन पर सम्बद्ध राज्य सरकार करती है। इसलिए, अध्यक्ष की उत्प्रेरक के तौर पर केंद्रीय बोर्ड, राज्य बोर्ड और राज्य सरकार के बीच एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है।अध्यक्ष के निर्देश के तहत् राज्य बोर्ड को ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जिससे सम्बद्ध राज्य सरकार के विभागों-सामाजिक कल्याण, महिला एवं बल विकास, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि,-के साथ प्रभावी एवं नियमित समन्वय हो सके।स्वैच्छिक संगठनों के प्रस्तावों को अनुशंसित करते समय, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि राज्य के सभी जिलों का संपूर्ण प्रतिनिधित्व हुआ है और सुदूरवर्ती और दुर्गम क्षेत्रों या निम्न महिला एवं बल विकास संसूचकों तथा अन्य जिलों, जहाँ तुरंत हस्तक्षेप किए जाने की जरुरत हो, पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।राज्य बोर्ड में जिलों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होना चाहिए, यदि किसी कारणवश कुछ जिले प्रतिनिधित्व नहीं करते तो इन्हें पास के जिलों के सदस्य को सौंपा जाना चाहिए।अध्यक्ष को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी कार्यक्रमों के अंतर्गत उप-समितियों में सदस्यों और साथ ही फील्ड ऑफिसर्स का प्रतिनिधित्व इस प्रकार होना चाहिए कि उनसे नियमित गुणात्मक आगत प्राप्त हो सके।यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बोर्ड की पूर्ण बैठक प्रत्येक तीन महीने के अंतराल पर नियमित रूप से आयोजित की जानी चाहिए। वित्त समिति की बैठक प्रत्येक 2 माह के नियमित अंतराल पर बुलायी जानी चाहिए और वितीय निहितार्थ के सभी प्रशासनिक मामलों को वित्तीय समिति के समक्ष इसके अनुमोदन हेतु प्रस्तुत किया जाना चाहिए।राज्य बोर्ड को सुनिश्चित करना चाहिए वित्त समिति के गठन में राज्य सरकार के वित एवं प्रशासन विभाग का प्रतिनिधित्व है।वित्त समिति से अनुमति मिलने के पश्चात्, राज्य बोर्ड का अध्यक्ष बोर्ड के कर्मचारियों की आय और प्रोत्साहनों का अनुमोदन करेगा।अध्यक्ष वार्षिक रिपोर्ट तैयार करेगा और इसे केंद्रीय बोर्ड और राज्य सरकार को सौंपेगा। यह रिपोर्ट प्रस्तुत किए जाने वाली तिथि से 30 दिनों के भीतर सम्बद्ध अधिकारियों तक पहुंच जानी चाहिए।राज्य बोर्डों के बेहतर निष्पादन तथा राज्य में वंचित महिलाओं एवं बच्चों के कल्याण हेतु केंद्रीय बोर्ड के अनुमोदन सहित कोई अन्य कार्य अध्यक्ष करता है।

समाज कल्याण का कार्यक्षेत्र अत्यंत व्यापक है और चूंकि राज्य सरकार ने अपने को मुख्य रूप से सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम तक ही सीमित रखा है, इसलिए कार्य स्वयंसेवी कल्याण संगठनों द्वारा ही किए जाते हैं। इनमें से जो संगठन दीर्घकालिक प्रकार के हैं वे राज्य समाज कल्याण द्वारा अनुदान प्राप्त करते हैं। इनमें से परामर्शदाता बोर्ड प्रत्यक्ष रूप से केन्द्रीय समाज कल्याण बार्ड से सम्बन्धित होता है।

समाज कल्याण प्रशासन की प्रमुख परिभाषाएं question 1

समाज कल्याण प्रशासन की प्रमुख परिभाषाएं निम्नवत् है :
जॉन किडनार्इ (1957) समाज कल्याण प्रशासन सामाजिक नीति को समाज सेवाओं में बदलने की एक प्रक्रिया है। राजा राम शास्त्री (1970) सामाजिक अभिकरण तथा सरकारी कल्याण कार्यक्रमों से संबंधित प्रशासन को समाज कल्याण प्रशासन कहते है। यद्यपि इसकी विधियाँ, प्रविधियाँ, तौर-तरीके, इत्यादि भी लोक प्रशासन या व्यापार प्रशासन की ही भाँति होते है। किन्तु इसमें एक बुनियादी भेद यह होता है कि इसमें सभी स्तरों पर मान्यताओं और जनतंत्र का अधिक से अधिक ध्यान रखते हुए ऐसे व्यक्तियों या वर्ग से सम्बन्धित प्रशासन किया जाता है जो बाधित होते है। डनहम (1949) समाज कल्याण प्रशासन को उन क्रिया कलापों में सहायता प्रदान करने तथा आगे बढाने में योगदान देने के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो किसी सामाजिक संस्था द्वारा प्रत्यक्ष सेवा करने के लिए अनिवार्य है।

कल्याण प्रशासन के प्रमुख क्षेत्र

महिला कल्याण:केन्द्र और प्रान्तिय सरकारों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों ने महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए अनेक कार्यक्रम आरम्भ किये और महिला दशक में उनकी सातत्यता को बनाये रखने के लिए, उनकी प्रगति और प्रसार के प्रयासों को तेज किया। बहुत सी प्रदेश की सरकारों ने आरम्भिक बाल सेवाओं के समेकित प्रदान की भूमिका को पहचानते हुए अपने प्रदेशों में केन्द्र द्वारा समर्थित समेकित शिशु विकास सेवाओं को उनके क्रियान्वयन के लिए लिया। इनका प्रभाव शिशु ओं और मताओं इन सब के जीवन पर पड़ा है जिसका प्रमाण जन्म के समय शिशु का भार बढ़ना, अपोषक अहार की घटनाओं में कमी उतना, टीकाकरण में वृद्धि होना, शिशु मृत्यु दर का घटना तथा जन्म और मृत्यु दरों में घटाव है।

बाल कल्याण:प्रत्येक वर्ष श्री जवाहरलाल नेहरू का जन्म दिन 14 नवम्बर को प्रत्येक वर्ष बाल दिवस के रूप में मनाया जाता हैं। बाल कल्याण बच्चों के प्रति राष्ट्रीय चिन्ता बच्चों के अधिकारों एवं उनके प्रति सरकार, समाज एवं परिवार के दायित्वों से सम्बन्धित एवं विधायी प्रावधानों से परिलक्षित है संविधान के अनचुछेद 15 में अंकित है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी कारखाने अथवा खान अथवा किसी अन्य खतरनाक रोजगार में नही लगाया जायेगा। राज्य नीति के निर्देषक सिद्धान्तों की धारा 39 में इस बात को सुनिष्चितकिया गया है कि आर्थिक आवश्यकता से बाध्य होकर बच्चों को उनकी आयु एवं शक्ति के आयोग किसी व्यवसाय में कार्य न करना पडे़। इसमें यह भी वर्णित है कि बच्चों को स्वतंत्रता की स्थितियों में स्वस्थ्य ढ़ग से विकसित होने के अवसर एवं सुविधायें दी जाएँ तथा बचपन एवं यौवन की शोषण एवं नैतिक एवं भौतिक परित्याग से रक्षा की जाए। धारा 45 के अंतर्गत राज्यों से 14 वर्ष के आयु के सभी बच्चों के लिए निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए कहा गया है।
राष्ट्रीय बाल नीति:विभिन्न पंचवष्रीय योजनाओं की विषय वस्तु बच्चों के प्रति सरकार की नीति का महत्वपूर्ण दर्पण है। प्रथम चार पंचवर्षिय योजनाओं से प्राप्त अनुभव, स्वतंत्रता उपरांत अनेक विभिन्न समितियों यथा भारत सरकार के द्वारा 1959 में नियुक्ति स्वास्थ्य सर्वे एवं नियोजन समिति, केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड द्वारा 1960 में स्थापित समाज कल्याण एवं पिछड़े वर्गो के कल्याण पर अध्ययन दल, समाज कल्याण विभाग द्वारा 1967 में नियुक्ति बाल कार्यक्रम-निर्माण समिति, शिक्षा आयोग 1964, शिक्षा मंत्रालय के द्वारा स्थापित पूर्व स्कूली बच्चों के बारे में अध्ययन समूह, की सिफारिषों, विकालांग बच्चों से सम्बन्धित स्वयं सेवी अभिकरणों सेविका/पर्यवेक्षक करती है।

समेकित बाल विकास सेवा योजना की प्रशासनिकइकार्इ ग्रामीण/आदिवासी क्षेत्रों में ब्लाक। तालुका और शहरी क्षेत्रों में वार्डो गन्दी बस्तियों का समूह होती है।

सयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय बाल आपात निधि (यूनिसेफ) परामर्श सेवा, प्रशिक्षण, संचार, आपूर्ति, उपकरण, प्रबोधन, अनुसंधान और मूल्यांकन के क्षेत्र में समेकित बाल विकास सेवा कार्यक्रम को सहायता प्रदान कर रहा है। नोराड (नार्वे एजेन्सी फार डिवलपमेंट) उ0 प्र0 के तीन जिलों अर्थात् लखनऊ, मिर्जापुर और रायबरेली में 31 समेकित बाल विकास परियोजनाओं को सहायता दे रहा है। यू0 एस0 ए0 आर्इ0 डी0 गुजरात के पंचमहल जिले में 11 समेंकित बाल विकास सेवा परियोजनाओं और महाराष्ट्र के चन्द्रपुर जिले में 10 समेकित बाल विकास सेवा परियोजनाओं को सहायता दे रहा है। कुछ समेकित बाल विकास सेवा परियोजनाओं को पूरक पोषाहार के लिए ‘‘केयर’’ और विश्व खाद्य कार्यक्रम की सहायता का भी उपयोग किया जा रहा है।

वृद्धों के कल्याण की आवश्यकता: संयुक्त राष्ट्र संघ ने वृद्धों कें प्रति अपनी चिंता को व्यक्त करते हुए 1982 के दौरान वियना में आयोजित विश्व युद्ध महासभा में वृद्धो के लिए अंतर्राष्ट्रीय कार्य योजना अंगीकृत की थी। सयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार, वर्ष 2.25 में विश्व में वृद्धों की जनसंख्या 1.2 विलियन हो जायेगी, जिनमें से लगभग 71 प्रतिशतविकासशील प्रदेशों में होगी। 1950 एवं 2025 के मध्य विकासशील एवं विकसित प्रदेशों में 80 वर्ष के ऊपर के वृद्धों की संख्या से दोगुनी हो जायेगी। क्योंकि महिलाओं की आयु पुरूषों से अधिक होती है, अतैव वृद्धो में महिलाओं का बाहुल्य होगा। यह सभी प्रवृत्तियों राष्ट्रीय सराकरों से मुख्य नीति संशोधन की माँग करती है।

पेंशन न्यास कोष :चतुर्थ वेतन आयोग को पेंशन की नयी विचारणा का एक सुझाव ‘काँमन को’ द्वारा दिया गया था। इस विचारणा में एक पेंशन न्यास कोष को विकसित करने का विचार निहित है। इस कोष में सरकार कर्मचारी की सेवा अवधि के अनुपात में पेंशन का अनुवर्ती भुगतान अथवा सेवा निवृत्ति पर उसकी कुल पेंशन का भुगतान करेगी। यह न्यास कम से कम 10 प्रतिशत ब्याज की गारण्टी देगा, जो पेंशन भोगी को मासिक भुगतान के रूप में मिलेगी। जब कभी महँगार्इ भत्ते की नयी किश्त दी जायेगी तो पेंशन भोगी के खाते में जमा कर दी जायेगी। कोष का प्रबन्ध न्याय मंडल द्वारा किया जायेगा जिसमें ख्यााति प्राप्त एवं निवेश अनुभवी लोग होंगे। पेंशन न्यास निधि के अनेक लाभ है। सर्वप्रथम एवं सर्व महत्वपूर्ण यह पेंशन भोगी को अथवा उसकी विधवा को पेंशन पाने के लिए विभिन्न प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए चक्कर नही काटने पडे़गे। इससें पेंशन निर्धारण भुगतान एवं लेखा रखने हेतु विविध स्थापनों पर हुये विशाल व्यय की बचत होगी। न्यास के क्रियान्वन की प्रक्रिया इतना सरलीकृत किया जा सकता है जिससें सारा कार्य थोड़े से स्टाफ द्वारा पूरा किया जा सके। इसके अतिरिक्त, सरकार न्यास निधि को लाभदायक विकासीय उद्देश्यों हेतु प्रयोग कर सकती है।

हैल्पेज इंडिया : हैल्पेज इंडिया वृद्धों को देखभाल प्रदान करने के कार्यक्रमों में संलग्न प्रादेशिक स्वयं सेवी संगठनों के व्यक्तियों को प्रशिक्षण भी प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त यह वृद्ध देखभाल परियोजनाओं हेतु तकनीकि विशेष ज्ञता भी प्रदान करती है। अपने प्रारम्भ में इसने लगभग 10 करोड़ की लागत से 700 ऐसी परियोजनाओं को प्रयोजित किया है। हैल्पेज स्वयं ऐसी परियोजनाओं को परिचालित नही करता, यह प्रादेशिक वृद्धायु स्वयंसेवी संगठनों को तकनीकि एवं वित्तिय सहायता के द्वारा ऐसी परियोजनाओं के द्वारा एवं कार्यक्रमों के संचालन में सहायता करता है। हैल्पेज के द्वारा प्रबंधित केवल चलती फिरती मैडीकेयर युनिट का संचालन है जो नर्इ दिल्ली की झुग्गी झोपड़ियों में 150 से 200 रोगियों को प्रतिदिन मैडीकेयर सुविधाएँ प्रदान करती है।

भारत में हेल्पेज इंडिया की स्थापना 1980 में की गर्इ थी जिसके लक्ष्य एवं उद्देश्य थे - 50 वर्ष से ऊपर के आयु के पुरूषों एवं स्त्रियों को निवासिय, आवासीय एवं संस्थागत सुविधाओं के माध्यम से शैक्षिक, मनोरंजनात्मक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक सेवाएँ प्रदान करना, मेडिकल सेवाओं, अर्द्धकालिक रोजगार आय वृद्धि हेतु, भ्रमणों एवं यात्राओं की व्यवस्था, करों, सम्पत्ति, पेंशनी एवं अन्य आर्थिक तथा वित्तिय आवश्यकताओं हेतु व्यवसायिक परामश्रीय सेवाओ की व्यवस्था करना, वृद्धों की समस्या के बारे में अध्ययन एवं अनुसंधान कराना, एवं अध्ययन केन्द्रों, गोष्टियों, मनोरंजनात्मक समारोहों, रैलियों आदि की व्यवस्था करना तथा एवं युवा पीढ़ियों के मध्य बेहतर सामाजिक एकीकरण एवं सद्भावना हेतु उचित वातावरण तैयार करना।

वृद्धायु आवास गृह : केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों, नगरपालिकाओं, परोपकारी समितियों, स्वयंसेवी संगठनों एवं अन्य वरिष्ठ नागरिक कल्याण समितियों ने वृद्ध एवं बुजुर्ग नागरिकों के लिए आवासीय सुविधाओं एवं अन्य सम्बद्ध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गृहों, शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों तथा अकेले पन को दूर करने एवं अन्य लोगों के साथ अन्तक्रिया करने एवं सम्पर्क बनाने हेतु मनोरंजन स्थलों की व्यवस्था की है। इस समय देशमें अधिकांशतया नगरीय क्षेत्रों में लगभग 300 ऐसे गृह है। इनसे कुछ एक का जिन्होने प्रशंसनीय कार्य किया है का वर्णन निम्नलिखित है-

अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों का कल्याण : हरिजनों की अधिकांष संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। कुछ समय पूर्व तक हरिजन अपनी बस्ती से बाहर निकलने का साहस नही कर पाता था परन्तु देषके कुछ एक भागों में कृषि विकास (विषेश तया हरित क्रान्ति), कुछेक प्रदेशों में औद्योगिक प्रगति, तेजी से बढ़ते हुए नगरीय करण एवं जनमानी प्रणाली के विघटन के कारण हरिजन गतिषील वर्ग बन गये है सभी अनुसूचित जाति श्रमिको का लगभग 52 प्रतिशत कृषिगत श्रमिक है तथा 28 प्रतिशतलघु एवं सीमान्त कृषक है एवं फसल सहभागी हैं। देशके पश्चिम भाग में लगभग सभी बुनकर अनुसूचित जातियों से है एवं पूर्वी भाग में सभी मछुवारे अनुसूचित जाति के है। कुछ गंदे व्यवसाय यथा झाडू लगाना, चमड़ा उतारना, तथा परिषोधन तथा चमड़ी उतारना पूर्णतया अनुसूचित जातियों के लिए है। नगरीय क्षेत्रों में रिक्शा चालको, ठेला चालको, निर्माण श्रमिकों, बीड़ी क्रमिकों एवं अन्य असंगठित गैर-कृषि श्रमिकों तथा नगरीय सफार्इ कर्मिकों, की पर्याप्त संख्या अनुसूचित जातियों से सम्बद्ध रखती है। वे उन निर्धनों में जो गरीबी रेखा से नीचे रहते है, में सबसे निर्धन है।यद्यपि जनसंख्या के अन्य वर्गो में भी निर्धन एवं दलित है तदपि घोर निर्धनता, असामान्य अज्ञानता एवं गठन अन्धविश्वास में डूबी हुर्इ जनसंख्या की अधिक भाग अनुसूचित जातियों में से है। वंचित लोगों में भी हरिजन ही शताब्दियों तक दासत, अपमान एवं नितांत विवशता का जीवन व्यतीत करते रहै है।

अनुसूचित जाति विकास निगम : अनुसूचित जाति विकास निगम के सम्मेलन में समाज कल्याण/अनुसूचित जाति कल्याण विभागों के सचिवों, अनुसूचित जाति विकास निगमों के वरिष्ठ अधिकारियों एवं प्रबन्धक निदेशकों, भारतीय रिजर्व बंकै , भारतीय स्टेट, नाबार्ड, जमा बीमा एवं ऋण गारण्टी निगम एवं बैकिंग संस्थानों, कल्याण मंत्रालय एवं ग्रामीण विकास विभाग, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग के प्रतिनिधित्व तथा अनुसूचित जनजाति आयुक्त ने भाग लिया। इस सम्मेलन का विषय था, अनुसूचित जाति विकास निगम के माध्यम से अनुसूचित जातियों के परिवारों के आर्थिक विकास हेतु सहायता की नयी प्रणाली जिसे सीमान्त धन ऋण कार्यक्रम के विकल्प रूप में विकसित किया गया था।

संवैधानिक सुरक्षा : संविधान में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों एवं अन्य कमजोर वर्गो के लिए विशेष तौर पर अथवा नागरिक रूप से उनके अधिकारों को मान्यता देकर उनके शैक्षिक एवं आर्थिक हितो का विकास करने एवं उनकी सामाजिक आयोग्यताओं को दूर करने हेतु सुरक्षाएँ प्रदान की गर्इ है। मुख्य सुरक्षाएँ है-
अस्पृष्यता उन्मूलन एवं किसी भी रूप मे इसके अभ्यास पर प्रतिबन्ध, (धारा 17) उनके शैक्षिक एवं आर्थिक हितों की उन्नति एवं सामाजिक अन्याय एवं शोषण के सभी रूपों से उनकी सुरक्षा, (धारा 46) सार्वजनिक स्वरूप की हिंदू धार्मिक संस्थाओं को सभी वर्गो एवं श्रेणियों के लिये खोल देना (25 बी) . दुकानों, जन भोजनालयों, रेस्टोंरेन्टों एवं सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों, कुओं, तलाबों, स्नानघाटों, सड़कों एवं सार्वजनिक विश्राम स्थानों जो पूर्णतया अथवा आंशिक रूप में राज्य कोष से सहायता प्राप्त करते है अथवा जन प्रयोग के लिए समर्पित कर दियें है, के प्रयोग के बारे में किसी अयोग्यता, बाधा अथवा शर्त की समाप्ति (धारा 15 (2)), अनुसूचित जातियों के हित में सभी नागरिकों को स्वतन्त्रापूर्वक घूमने, बसने अथवा सम्पत्ति प्राप्त करने के सामान्य अधिकार पर कानून के द्वारा प्रतिबन्ध (19 (5), संविधान में अनुसूचित जनजातियों के हितों के संरक्षण एवं वर्द्धन हेतु विभिन्न सुरक्षाओं की व्यवस्था है। अनुच्छेद 19, 46, 164, 244, 330, 332, 334, 338, 349, 342, तथा संविधान की पाँचवी एवं छठी अनुसूचियाँ इस विशय पर प्रासंगिक है। भारत सरकार कर दायित्व इस मामले में केवल उनके विकास के लिए वित्तिय व्यवस्था करने से ही समाप्त नही हो जाता अपितु यह राज्य सरकारों के सहयोग एवं परामर्श से उनके शीघ्र एवं समन्वित विकास हेतु नीतियों एवं कार्यक्रमों का भी निर्णय करती है।                            संविधान के निर्देषों के परिपालन में केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों ने स्वातंत्रता प्राप्ति के बाद निम्नलिखित अधिनियम पारित किये है-

प्रषासनिक संगठन : श्रम मंत्रालय

श्रमनीति एवं श्रम कल्याण से सम्बन्धित अधिनियमों को श्रम मंत्रालय, भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के श्रम विभागों द्वारा क्रियान्वित किया जाता है। श्रम मंत्रालय कैबिनेट मंत्री/राज्य मंत्री/स्वतंत्र प्रभार के अधीन कार्य करता है। भारत सरकार का कोर्इ एक सचिव प्रशासकीय अध्यक्ष होता है जिसकी सहायतार्थ एवं अतिरिक्त सचिव, चार संयुक्त सचिव, एक महानिदेषक तथा अन्य वरिष्ट एवं कनिष्ट अधिकार होते है।

श्रम मंत्रालय के कार्य :

मंत्रालय श्रम मामलों यथा औद्योगिक सम्बन्धो, श्रम एवं प्रबन्ध के मध्य सहयोग, वेतन एवं सेवा की अन्य शर्तो को नियमन, सुरक्षा, श्रम कल्याण, सामाजिक सुरक्षा आदि से सम्बन्धित नीति का निर्माण करने के लिए उततरदायी है। श्रम नीति का क्रियान्वन केन्द्रीय सरकार के द्वारा निर्देशन एवं नियंत्रण के अधीन राज्य सरकारों का दायित्व है। रेलवे, खानों, तेल क्षेत्रों, प्रमुख बन्दरगाहों, बैकों, बीमा कम्पनियों तथा अन्य जो संघ सूची में वर्णित है, राज्य सरकार के क्षेत्र में नही आते है। मंत्रालय कर्मचारी राज्य बीमा कानून, 1948 कर्मचारी भविष्य निधि कोष एवं विधि व्यवस्थाओं कानून, 1952 के अधीन सामाजिक सुरक्षा स्कीमों के क्रियान्वयन तथा बीड़ी उद्योग एवं खान (कोयला खानों को छोड़कर) श्रमिकों के कल्याण कोषों के प्रबन्ध के लिए सीधा उत्तरदायी है। यह राज्य सरकारों की श्रम मामलों के बारे में गतिविधियों को समन्वित करता है तथा आवश्यकता के समय परामर्श देता है। यह व्यक्तियों को उनकी रोजगार क्षमता बढ़ाने हेतु प्रशिक्षण सुविधाएँ भी प्रदान करता है। यह अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन एवं अन्य अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा संगठन के सम्बन्धित सभी गतिविधियों के लिए आदर्श संगठन के रूप में कार्य करता है। यह सम्मेलनों एवं बैठकों में सहभागिता को समन्वित करता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय एवं इन संस्थाओं की सिफारिशों को क्रियान्वित करने के लिए उत्तरदायी है।

समाज कल्याण प्रशासन का वर्गीकरण

भारत में समाज कल्याण का कार्य प्राचीन काल से ही शैक्षिक आधार पर ही होता आया है। मध्य काल में कतिपय शासकों द्वारा जनहित में कुछ कार्य किये जाते थे। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को स्वीकार किया तथा जनहित को शासन का दायित्व स्वीकार किया गया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र व अन्य संगठनों तथा प्रजातांत्रिक देशों ने समाज कल्याण हेतु अनेक कार्यक्रम चलाये। वर्तमान में भारत में विभिन्न समाज कल्याण योजनाओं को उनके प्रशासनिकवर्गीकरण के आधार पर निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
अंतर्राष्ट्रीय समाज कल्याण प्रशासन केन्द्रीय समाज कल्याण प्रशासन राज्य स्तरीय समाज कल्याण प्रशासन शासन द्वारा सहायता प्राप्त अनुदान द्वारा समाज कल्याण करने वाली पंजीकृत गैर सरकारी संस्थाओं का प्रशासन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सहायता प्राप्त अनुदान द्वारा समाज कल्याण करने वाली पंजीकृत गैर सरकारी संस्थाओं का प्रशासन 6. निजी संस्थाओं के द्वारा किये जाने वाले समाज कल्याण का प्रशासन स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा किये जाने वाले समाज कल्याण का प्रशासन

समाज कल्याण प्रशासन की प्रक्रिया

समाज कल्याण प्रशासन प्रक्रिया में प्रक्रिया समान उद्देश्य प्राप्ति के लिए समूह के पारस्परिक प्रयत्नों को सुविधाजनक बनाती है। प्रशासन प्रक्रिया निम्नाकिंत प्रकार के कार्यो के लिए प्रयोग में लार्इ जाती है।
प्रशासनिक विधि, प्रक्रिया, कार्य की प्रगति और फल-प्राप्ति का समय-समय पर मूल्यांकन होना चाहिए। संस्था के उद्देश्यों और कार्यक्रमों संबंधी आँकड़े इकट्ठे करके निर्णय लेने में सहायता करना। उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर आवश्यकताओं का विश्लेषण करना।पूर्वानुमान के आधार पर संस्था के कार्य के लिए बहुत सी वैकल्पिक तकनीकों या प्रक्रियाओं में से एक का चुनाव करना। वैकल्पिक प्रक्रिया के प्रयोग के द्वारा संस्था की परियोजनाओं को क्रियान्वित करने की व्यवस्था करना। संस्था के कार्य के आधार के अनुरूप आवश्यक कर्मचारियों की भर्ती, प्रशिक्षण, पर्यवेक्षण, कार्य-बँटवारा आदि की व्यवस्था करना। संस्था की उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समुचित उपायों, क्रिया विधियों और तकनीकों के निरंतर प्रयोग की व्यवस्था करना। कार्य-विधि के दौरान कार्य को सुदृढ़ बनाने के लिए आकड़ों का संग्रह, अभिलेखन और विश्लेषण करना। सार्वजनिक धनराशि के सदुपयोग के हेतु वित्तिय क्रियाविधियों का निर्धारण करना और उनको क्रियान्वित करना। संचार और प्रभावशाली जन-सम्पर्क की व्यवस्था करना। समय-समय में कार्य और प्रयोग में लार्इ जाने वाली विधियों का मूल्यांकन करवाना।
वित्तीय प्रक्रिया : यद्यपि संस्था के वित्त्ाीय मामलों का दायित्व प्रबंध-समिति पर होता है, जो कोषाध्यक्ष के माध्यम सें इसे कार्यान्वित करती है, तथापि बजट बनाने में संस्था के मुख्य कार्यपालक को पहल करना चाहिए। यदि संस्था के अनेक अनुभाग अथावा शाखायें हो तो उन सब के अनुमानित व्यय का ब्यौरा प्राप्त करना चाहिए और फिर उसका इकट्ठा विवरण तैयार करना चाहिए। कर्मचारी वर्ग और कार्यकत्त्ााओं की चाहिए वे कार्यालय में अगामी वर्ष के कार्यक्रमों संबंधी विित्त्ाय आवश्यकताओं के विषय में संपूर्ण टिप्पणी रखते जायँ। ऐसा करते समय, संस्था के विित्त्ाय स्त्रोतों की क्षमता और कार्यक्रमों के विस्तार और सुधार के प्रस्तावों को ध्यान में रखना चाहिए।

उपलब्ध सामग्री के आधार पर बजट के मसविदे पर कर्मचारियों की बैठक में विचार करने के बाद उसे अंतिम रूप देकर कोषाध्यक्ष के द्वारा प्रबंध समिति के सामने पेश किया जाना चाहिए। प्रबंध समिति के द्वारा अनुमोदित बजट की सामान्य सभा से स्वीकृति प्राप्त की जानी चाहिए। प्रबंध समिति के द्वारा बजट उप समिति बनार्इ जानी चाहिए, जिसमें विित्त्ाय मामलों के विशेष ज्ञ, लेखा निरीक्षण, लेखाकार तथा मूल्यांकन पद्धति का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति होने चाहिए। कोषाध्यक्ष इस समिति का प्रधान और मंत्री इसका मंत्री होना चाहिए।

बजट बनाने से पहले संस्था के आय व्यय का ब्यौरा मदों के अनुसार बनाना चाहिए। बजट के दो भाग होते है आय और व्यय। बजट निम्नलिखित खण्डों में बनाया जाना चाहिए :-
पिछले वर्ष का अनुमानित आय-व्यय। पिछले वर्ष का वास्तविक आय-व्यय। चालू वर्ष का वास्तविक आय-व्यय। अगामी वर्ष का अनुमानित आय-व्यय।
बजट के साथ व्याखात्मक टिप्पणी तैयार करनी चाहिए, जिसमें पिछले वर्ष से अधिक और कम अनुमानों के कारा दिये जाने चाहिए और यह भी बताया जाना चाहिए कि मदों पर अतिरिक्त व्यय के लिए धन कहाँ से प्राप्त किया जाये। यदि कोर्इ नया कार्यक्रम चालू करना हो अथवा वर्तमान कार्यक्रम में सुधार अथवा विस्तार करना हो, तो उसके लिए अनुमानित व्यय के सबंध में व्याख्यात्मक टिप्पणी देना चाहिए।

समाज कल्याण प्रशासन का इतिहास

प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता, कुशलता तथा सामाजिक परिस्थितियों के कारण एक दूसरे से भिन्न अस्तित्व रखता है। वह अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है। उसे अन्य व्यक्तियों की सहायता लेनी ही पड़ती है जिसके परिणामस्वरूप सामूहिक आवश्यकताओं का जन्म होता है। व्यक्ति की ये आवश्यकतायें एक दूसरे को सहायता प्रदान करने के सिद्धान्त पर संगठित करती हं ै तथा उनमें एकमतता, सामूहिकता तथा सहयोग की भावना का विकास करती हं ै जो एक सभ्य समाज की आधारशिला है। प्रारम्भ में समाज कल्याण के विकास में धर्म के नाम पर दिए जाने वाले दान की संगठित व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके बाद आवश्यकताग्रस्त सदस्यों की सहायता के लिए व्यावसायिक संघों की पारस्परिक सहायता समितियों की प्रमुख भूमिका रही है। इसके बाद शहरों का विकास होने पर नगरपालिकाओं द्वारा आवश्यकताग्रस्त लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाने लगी जो बाद में राज्य के दातव्य संगठनों के रूप में परिवर्तित हो गर्इ। इसके अतिरिकत जाँन हावड्र, एलिजावेथ फ्रार्इ, जोसफीन ब्टलर, फ्लोरेन्स नाइटिंगेल जैसे समाज सुधारकों के प्रयासों के कारण सामाजिक सहायता के समाधान का विकास हुआ। अंग्रेजी निर्धन कानून का निर्माण समाज के निर्बल वर्गों की समस्याओ के समाधान में राज्य के उत्तरदायित्व की चेतना के विकास का प्रतिनिधित्व करता है और साथ-साथ इस बात को भी सामने लाता है कि केवल सहायता मात्र से कल्याण के लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हों सकती। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में चलाए गए दान संगठन आन्दोलन का उद्देश्य निर्धनों की स्थिति में सुधार और इस कार्य में लगे हुए संगठनों में समन्वय स्थापित करना था।

भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही व्यक्तियों को सहायता प्रदान करने अथवा सेवा की भावना के महत्व का अनुभव किया गया था। गीता के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में ब्रºमा ने त्याग के साथ मनुष्य की रचना करने के बाद कहा कि पारस्परिक बलिदान तथा पारस्परिक सहायता से उनका विकास तथा उनकी समृद्धि एवं वृद्धि होगी। यह त्याग कामधेनु के समान है जो सभी इच्छित वस्तुओं को प्रदान करेगा (बनर्जी, 1967:150)। भारतीय दर्शन में यज्ञ को बहुत महत्व दिया गया है जिसका अर्थ ऐसी किसी भी सामाजिक, राष्ट्रीय अथवा व्यक्तिगत क्रिया से है जिसमें व्यक्ति सेवा की भावना से अपने को पूर्ण रूप से लगाने के लिए तैयार है। समाज कल्याण में सेवा की भावना का सर्वोपरि स्थान है। पंचतन्त्र में यह ठीक ही कहा गया है, ‘सेवा धर्म परम गहनो योगिनाम् प्रिय गम्य:’ और इसीलिए जो व्यक्ति सेवा की भावना से, लाभ की भावना से नहीं, तथा आत्मसन्तोष की भावना से, सफलता की भावना से नहीं, कार्य करता है, वही समाज कल्याण में वास्तविक योगदान दे सकता है। कठोपनिषद् में व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न किए जाने वाले सभी कार्यों को पेय्र एवं श्रेय की श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। समाज कल्याण की दृष्टि से इस बात पर बल दिया गया कि व्यक्ति को अपने लिए प्रेय न होने के बावजूद भी श्रेय कायांरे को करना चाहिए। प्राचीन भारतीय विचारधारा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को धर्म अर्थात् समाज के प्रति अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करने के लिए कहा गया है जो एक लम्बी अवधि के दौरान व्यक्ति में आत्मविश्वास और शुद्धीकरण को लाते हुए उसका भी कल्याण करता है। इसके साथ ही साथ प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव में अच्छार्इयाँ तथा बुरार्इयाँ दोनों ही पायी जाती हं ै और इन दोनों ही प्रकार की शक्तियों में अन्तर्द्वन्द होता रहता है। अपनी तार्किक शक्ति का उपयोग करते हुए व्यक्ति बुरार्इयों पर काबू पाने का प्रयास करता है तथा अपने प्रयासों से समाज कल्याण में अपना योगदान देता है।

हिन्दू समाज में जीवन के लक्ष्यों के रूप में चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का वर्णन किया गया है। इनमें से इहलौकिक अर्थ तथा काम की पूर्ति भी धर्म द्वारा निर्धारित होती है और अन्तिम उद्देश्य मोक्ष को चरम उत्कर्ष वाला माना जाता था और पहले तीनों लक्ष्यों का उद्देश्य चौथे लक्ष्य अर्थात् मोक्ष को प्रापत करना होता था। हमारे मनीषियों द्वारा कर्तव्यों के संपादन पर अधिक बल दिया गया है और पंच महायज्ञों का प्रावधान करते हुए विभिन्न प्रकार के ऋणों से छुटकारा पाने की बात कही गयी है। भारतवर्ष में सामाजिक न्याय की विचारधारा कभी भी व्यक्ति के अधिकारों पर केन्द्रित नहीं रही है बल्कि यह अन्य व्यक्तियों के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रतिपादन पर आश्रित रही है।

इस प्रकार भारतवर्ष में त्याग की भावना पर हमेशा बल दिया गया है किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि व्यक्ति अकर्मण्य बन जाए। निष्काम कर्म का उपदेश इसीलिए दिया गया था ताकि व्यक्ति धर्म द्वारा निर्धारित सीमाओं के अधीन कार्य करते हुए इहलौकिक लक्ष्यों-अर्थ एवं काम की प्राप्ति कर सके। बुद्धिमान व्यक्तियों को निष्काम कर्म करने की सलाह सम्पूर्ण विश्व का हित करने के लिए दी गर्इ थी। भारतवर्ष में प्राचीन काल में कलयाण की अवधारणा केवल आवश्यकताग्रस्त वगांर् े तक ही सीमित नहीं थी बल्कि इसके विस्तार क्षेत्र में सभी वर्ग सम्मिलित थे। इसके साथ ही साथ कल्याण की अवधारणा शारीरिक अथवा भौतिक कल्याण तक ही सीमित नहीं थी और इसीलिए अनेकों ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें व्यक्ति अथवा समूह अपने साथियें की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति नाना प्रकार के कार्य करते हुए करते थे जैसे कि कूँएं अथवा तालाब खुदवाना, विद्यालय खोलना, धर्मशालायें बनवाना, अस्पताल स्थापित करना, दार्शनिक विचार-विमर्श के लिए मठों की स्थापना करना, इत्यादि।समाज कल्याण की आवधारणा अत्यन्त प्राचीन है। निर्धनता, बीमारी, कष्ट आदि मानव जीवन में सदैव विद्यमान रहे है। प्रारम्भ में गिरोह तथा कबीलों के रूप में जीवन व्यतीत करता था। किन्तु यह जीवन आरक्षित एवं अव्यवस्थित था। फलस्वरूप समुदाय, समाज तथा राज्य के रूप में मनुष्य ने समष्टिगत व्यवस्था को जन्म दिया। इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप समाज मेंविश्ेाषीकरण का विकास हुआ और श्रम विभाजन ने जन्म लिया। इस श्रम-विभाजन के कारण समाज में उत्पादन के साधन एक दूसरे से पृथक हो गये। श्रम और पूँजी दो पृथक व्यक्तियों के हाथ में चली गर्इ। इससे समाज में शोषण, उत्पीड़न तथा सम्पत्ति व शक्ति का असमान वितरण प्रारम्भ हुआ। असमान वितरण के कारण ही अनेक सामाजिक समस्याओं का जन्म हुआ और इन समस्याओं को हल करने के लिए समाज कल्याण का विकास हुआ।

इस प्रकार भारतीय परम्परा के अनुसार व्यक्ति का उद्देश्य स्वार्थ, लालच, तृष्णा जैसी पाशविक प्रवृत्तियों से नियन्त्रित सीमित व्यक्तिवाद को सम्पूर्ण मानव-मात्र की भलार्इ के लिए कार्यरत आत्मबोध कराने वाली सार्वभौमिकता में परिवर्तित करना था जो कि समाज कल्याण प्रशासन की प्रारम्भिक स्थिति कही जा सकती है।

समाज कल्याण प्रशासन समाज के प्रत्येक समाज कल्याण अभिकरण के सुचारू रूप से कार्य करने से सम्बन्धित है। इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक, आर्थि, सांस्कृतिक तथा नैतिक विकास के लिए लोकतांत्रिक नियोजन के द्वारा कल्याणकारी समाज की स्थापना करना है। समाज कल्याण प्रशासन विकास नीति के प्रतिपादन में सहायता करता है। इसके साथ ही अनेक प्रमुख समाज कल्याण सेवाओं को समन्वित ढ़ग से नियोजित, व्यस्थित एवं कार्यान्वित करने में सहायता करता है। इन सेवाओं में राजकीय तथा स्वयंसेवी अभिकरणों का मिलकर कार्य करना भी शामिल है, यद्यपि विविध समाज कल्याण सेवाओं में इन दोनों का अनुपात भिन्न-भिन्न हो सकता है। इन सेवाओं को निम्न क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है:-

1. समाज सेवायें

(क) शिक्षा
इसके अन्तर्गत प्राथमिक, माध्यमिक, विश्वविद्यालय स्तरीय, तकनीकि व्यावसायिक, श्रमिक तथा सामाजिक शिक्षा सम्मिलित हैं। शिक्षा का समन्वय जनषक्ति नियोजन द्वारा होना चाहिए। शिक्षा मानव संसाधन के विकास में निवेश मानी जाने लगी है। यह एक प्रशंसनीय प्रगति है, परन्तु शिक्षा में सामाजिक मूल्यों तथा नैतिक विकास पर विशेष ध्यान देन की आवश्यकता है।

(ख) स्वास्थ्य सेवायें एवं परिवार नियोजन
स्वास्थ्य सेवाओं में चिकित्सकीय, निरोधात्मक तथा स्वस्थ्य वर्धक सेवायें आती है। जन्म दर में वृद्धि में विशेष कमी करने के लिउ परिवार नियोजन आवश्यक है। इस कार्य में स्वयंसेवी संस्थाओं का सहयोग निन्तात आवश्यक है। कृत्रिम साधनों के प्रयोग के साथ साथ संयम तथा नैतिक जीवन पर भी ध्यान देना चाहिए ताकि वह प्रयास पाश्चात्य देशों का अनुकरण मात्र ही बनकर न रह सके।

(ग) आवास
निम्न आय वाले वर्ग के लिए ऋणमुक्त अनुदान की व्यवस्था की जाती है क्योकि साधनों के अभाव के कारण आवास स्थिति में विशेष सुधार की आशा नही की जा सकती है। राज्य की और से भी कम मूल्य के आवास बड़ी संस्था में बनाये जा सकते है।

2. सामाजिक सुरक्षा

सामाजिक सुरक्षा को सुदढ़ बनाने के लिए सामाजिक बीमा का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। इन योजनाओं को एकीकृत करते हुए अधिक व्यापक बनाया जा सकता है। इससे निम्न आय वर्ग से प्राप्त धनराशि से योजना के साधनों में वृद्धि की जा सकती है। सामाजिक सहायता द्वारा वृद्धों, अबलाओं आदि को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता दी जाती है। धन के आभाव के कारण इन सेवाओं को और अधिक व्यापक बनाने में अभी भी कठिनार्इ है। स्वयंसेवी संस्थायें इस ओर ध्यान दे तो अधिक साधन जुटाये जा सकते है।

3. सामुदायिक विकास

सामुदायिक विकास ग्रामीण तथा नगरीय दोनों स्तर पर होता है। इन दोनों स्तरों का एकीकृत कर एक व्यापक सामुदायिक विकास योजना के चलाये जाने की आवश्यकता है जिससे संतुलित विकास सम्भव हो सके।

4. श्रम सम्बन्ध

श्रमिक संघों की नियोजन की प्रक्रिया में सहभागिता आवश्यक है। राजकीय तथा निजी क्षेत्रों में प्रबंधकों और श्रमिकों के बीच मधुर सम्बन्ध स्थापित करते हुए उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है।

5. समाज कल्याण

अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़ी जातियों की कल्याण योजनाओं का विस्तार किया जाना चाहिए जिससे इस वर्ग में भी एकीकरण हो सकें। शारीरिक रूप से बाधित जैसे अंधे, बधिर, अपाहिज, आदि के लिए कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण होना चाहिए। समाज में इनके पुनस्र्थापन को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। मानसिक रोगियों के लिए मानवता वादी समाज की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा एक राष्ट्रवादी तथा एक राष्ट्रव्यापी मानव आरोग्य शास्त्र का विधिवत प्रचार किया जाना चाहिए। सामाजिक चेतना के रचनात्मक कार्यो से मानसिक स्वास्थ्य में वृद्धि हो सकती है।

6. सामाजिक रक्षा

वयस्क, युवा तथा बाल अपराधियों के लिए सुधार सम्बन्धी सेवाओं की व्यवस्था की जानी चाहिये। इसमें बन्दीगृह, प्रोबेशन, पुनर्वास आदि सेवायें आती है। अनैतिक व्यापार से पीड़ित लड़कियों तथा स्त्रियों के लिए नारी निकेतन तथा भिक्षुओं के लिए गृह स्थापित किये जाने 

समाज कल्याण प्रशासन की अवधारणा एवं प्रकृति Questions 2


समाज के प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति उचित ढ़ग से करना, जिससे कि वह सुखी और सन्तोषजनक जीवन व्यतीत कर सके, कल्याणकारी राज्य का प्रमुख उदेद्श्य है। प्रभावकारी सेवाओं को विस्तृत स्तर पर लागू करने के लिए, योजना, निर्देशन, समन्वय और नियंत्रण का सामूहिक प्रयास किया जाता है। समाज कार्य की सेवाओं को व्यवसायिक स्वरूप प्रदान करने के लिए भी यह आवश्यक है कि समाज कार्यकर्ताओं को आवश्यक ज्ञान और कौशल प्रदान किया जाये। समाज कार्य सेवाओं को प्रदान करने में आवश्यक प्रशासनिक एवं नेतृत्व दक्षता के लिए कार्यकर्ता को इस ज्ञान और कौशल का प्रयोग करके सेवाओं को और प्रभावकारी बनाया जा सकता है। अत: यह आवश्यक है कि समाज कार्यकर्ताओं को एक व्यवस्थित ज्ञान एवं तकनीकी कौशल प्रदान किया जाये।

समाज कल्याण प्रशासन की अवधारणा 

समाज कल्याण प्रशासन समाज कार्य की एक प्रणाली के रूप में कार्यकताओं को प्रभावकारी सेवाओं हेतु ज्ञान एवं कौशल प्रदान करता है। यद्यपि समाज कल्याण प्रशासन , समाज कार्य की द्वितीयक प्रणाली मानी जाती है परन्तु प्रथम तीनों प्राथमिक प्रणालियों, वैयक्तिक सेवा कार्य, सामूहिक सेवा कार्य, तथा सामुदायिक संगठन की सेवाओं में सेवाथ्र्ाी को सेवा प्रदान करने हेतु समाज कल्याण प्रशासन की आवश्यकता पड़ती है। समाज कल्याण प्रशासन का आशय जन सामान्य के लिए बनायी गयी एवं सामुदायिक सेवाओं जैसे स्वास्थ्य, आवास शिक्षा और मंनोरजन के प्रशासन से है। इसे समाज सेवा प्रशासन के पर्यायवाची शब्द के रूप मे समझा जाता है।


समाज कल्याण प्रशासन की प्रकृति 

समाज कल्याण प्रशासन विज्ञान तथा कला दोनों हैं। एक विज्ञान के रूप में इसके क्रमबद्ध ज्ञान होता है जिसका उपयोग सेवाओं को अधिक प्रभावी बना देता है। विज्ञान के रूप में इसके निम्न तत्व प्रमुख है नियोजन, संगठन, कार्मियों की भर्ती, निर्देशन, समन्वय, प्रतिवेदन, बजट तथा मूल्यांकन। कला के रूप में समाज कल्याण प्रशासन में अनेक निपुणताओं तथा प्रविधियों का उपयोग होता है जिसके परिणाम स्वरूप उपयुक्त सेवाओं को प्रदान सम्भव होता है। समाज कल्याण प्रशासन की निम्न प्रमुख विषेशतायें है:-
  1. प्रशासन कार्यो को पूरा करने के लिए की जाने वाली एक प्रक्रिया है। समाज कल्याण प्रशासन में स्वास्थ्य, शिक्षा आवागमन, आवास, स्वच्छता, चिकित्सा, आदि सेवाओं को प्रभावकारी बनाया जाता है। 
  2. समाज कल्याण प्रशासन की संरचना में एक उच्च-निम्न की संस्तरणात्मक व्यवस्था होती है। कर्मचारियों की स्थिति के अनुसार उनके कार्य तथा शक्तियाँ निर्धारित होती है। 
  3. नेतृत्व निर्णय लेने की क्षमता, शक्ति, संचार आदि प्रशासकीय प्रक्रिया के प्रमुख अंग है। 
समाज कल्याण प्रशासन मूलरूप से निम्न क्रियाओं से सम्बन्धित है:- 
  1. राज्य के सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करन के लिए ऐसी नीति निर्धारित करना जिससे संगठनल में कार्यरत जनशक्ति एकीकृत रूप से कार्य कर सके। 
  2. सेवाओं के प्रभावपूर्ण प्रावधान के लिए संगठनात्मक संरचना की रूपरेखा तैयार करना। 
  3. संसाधनों, कर्मचारीगण तथा आवश्यक प्रविधियों का प्रबन्ध करना।
  4. आवश्यक ज्ञान एवं निपुणताओं से युक्त मानव संसाधन का प्रबन्ध करना।
  5. उन क्रिया-कलापों को सम्पादित करवाना जिनसे अधिकतम संतोषजनक ढ़ग से लक्ष्य की प्राप्ति हो सके। 
  6. ऐसा वातावरण तैयार करना जहाँ आपसी मेल-मिलाप तथा प्रगाढ़ता बढ़े एवं कर्मचारी कार्य करने की प्रक्रिया के दौरान में सुख अनुभव करें। 
  7. किये जाने वाले कार्यो को निरन्तर मूल्यांकन करना। 

समाज कल्याण प्रशासन के कार्य 

समाज कल्याण प्रशासन न केवल संस्था के कार्यो को सम्पादित करता है बल्कि वह संस्थओं को निरन्तर उन्नति की दिशा में बढ़ाने का प्रयास भी करता है। वारहम के विचार से समाज कल्याण प्रशासन के निम्न कार्य है:-
  1. संस्था के उद्देश्य को पूरा करना समाज कल्याण प्रशासन संस्था की नीतियों को कार्यान्वित करता है। नीतियों को केवल प्रषासनिकप्रक्रिया द्वारा ही कार्यरूप प्रदान किया जा सकता है। वह नीतियों के निर्धारण में भी भाग लेता है जिससे संस्था के उद्देश्यों तथा नीतियों में एकरूपता बनी रहे। 
  2. संस्था की औपचारिक संरचना का निर्माण करना समाज कल्याण प्रशासन का दूसरा कार्य सम्पेष््र ाण व्यवस्था को अधिक प्रभावी बनाने के लिए औपचारिक संरचना का निर्माण करना होता है, कर्मचारियों के लिए मानदण्ड निर्धारित करना होता है, तथा उन्ही के अनुसार कार्य सम्बन्ध विकसित करना होता है।
  3. सहयोगात्मक प्रयत्नों को प्रोत्साहन प्रदान करना प्रशासन का कार्य संस्था में ऐसा वातावरण तैयार करना होता है जिससे कर्मचारीगण पारस्परिक सहयोग से अपने उत्तरदायित्वों को पूरा कर सकें। यदि कहीं भी संघर्ष के बीज पनपने लगें तो उनकों तुरन्त नष्ट कर देना आवश्यक होता है। कर्मचारियों के मनोबल को ऊँचा बनाये रखने के हर सम्भव प्रयत्न किये जाने आवश्यक होते है। 
  4. संसाधनों की खोज तथा उपयोग करना किसी भी संस्था के लिए अर्थ शक्ति तथा मानव शक्ति दोनों आवश्यक होती है। संस्था तभी अपने उत्तरदायित्वों को पूरा कर सकती है जब उसके पास पर्याप्त धन हो तथा दक्ष कर्मचारी हों। आर्थिक स्त्रोतों का पता लगाकर उनके समुचित उपयोग करने की व्यवस्था का कार्य प्रशासन हो होता है। वित्त पर नियंत्रण रखने का कार्य भी उसी का होता है। वह अपनी शक्तियों को हस्तांतरित भी करता है जिससे दूसरे अधिकारी इस शक्ति का उपयोग कर सके। 
  5. अधीक्षण का मूल्यांकन प्रशासन संस्था के कार्यो के लिए उत्तरदायी होता है। अत: वह इसकी सभी गतिविधियों पर दृष्टि रखता है। वह संस्था के कर्मचारियों की आवश्यक तानुसार सहायता करता है तथा दिशा निर्देश देता है। वह सदैव कार्य प्रगति का लेखा-जोख रखता है। वह कार्यो का मूल्यांकन निरन्तर करता रहता है। 

लूथर गलिक ने समाज प्रशासन के कार्यो का वर्णन करने के लिए जादुर्इ सूत्र ‘पोस्डकार्ब’ प्रस्तुत किया है जिसका तात्पर्य है नियोजन करना, संगठन करना, कर्मचारी नियुक्ति, निर्देशित करना, समन्वय करना, प्रतिवेदन प्रस्तुत करना तथा बजट तैयार करना।

नियोजन: 

नियोजन का अर्थ है भावी लक्षित कार्य की रचना। इसमें वर्तमान दशाओं का मूल्यांकन, समाज की समस्याओं एवं आवश्यक ताओं का पहचान, लधु अथवा दीर्घ अवधि के आधार पर प्राप्त किये जाने वाले उद्ेदश्य एवं लक्ष्य तथा वाछित साध्यों की प्राप्ति के लिए क्रियान्वित किय जाने वाले कार्यक्रम का चित्रण निहित है। भारत में योजना आयोग की स्थापना काल से तथा 1951 में नियोजन प्रक्रिया के आरम्भ से समाज कल्याण नीतियों, कार्यक्रमों एवं प्रशासकीय संयत्र पर यघपि आरम्भ में अधिक बल नही दिया गया, परन्तु उसके बाद क्रमिक पंचवर्षिय योजनाओं में उन्हें उचित वाछित स्थान दिया गया है। नियोजित विकास के गत चार दशकों के दौरान समाज कल्याण को योजना के एक घटक के रूप में महत्व प्राप्त हुआ हैए जैसा योजनाओं में परिलक्षित है। उदाहरणातया प्रथम योजना में राज्यों से लोगों के कल्याण हेतु सेवाएँ प्रदान करने के लिए बढ़ती हुर्इ योजना का आहृान किया गया है। दूसरी पंचवर्षिय योजना में समाज के पीड़ित वर्गो को समाज सेवा प्रदान करने की धीमी गति के कारणों पर ध्यान दिया गया। तीसरी योजना में महिला एवं बाल देखभाल, सामाजिक सुरक्षा, विकलांग सहायता तथा स्वयंसेवी संगठनों को सहायता अनुदान पर बल दिया गया। चतुर्थ योजना में निराश्रित बच्चों की आवश्यक ताओं को बल मिला। पाँचवी योजना में कल्याण एवं विकास सेवाओं के उचित समेकन को लक्ष्य बनाया गया। छठी योजना में समाज कल्याण के आकारचित्र के अन्दर बाल कल्याण को उच्च प्राथमिकता दी गर्इ सातवीं योजना में समाज कल्याण कार्यक्रमों को इस प्रकार से आकार दिया गया ताकि वे मानव संचालन विकास की दिशा में निर्देशित कार्यक्रमों के पूरक बने। आठवी पंचवष्र्ाीय योजना में, प्रत्याशा है, वर्तमान कल्याण कार्यक्रमों का विस्तार तथा नये कार्यक्रमों को सम्मिलित किया जायेगा।

नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य कार्यो को व्यवस्थित ढ़ग से सम्पादित करने की रूपरेखा तैयार करना होता है। यह रूप रेखा पूर्व उपलब्ध तथ्यों के आधार पर भविष्य के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर तैयार की जाती है। बिना विस्तृत नियोजन के कार्यो को ठीक प्रकार के पूरा करने में कठिनार्इ आती है। नियोजन का प्रमुख कार्य उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से पारिभाषित करना होता है। इसके पश्चात् इन लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नीति निर्धारित करनी होती है। तीसरा कदम इन तरीकों तथा साधनों की व्यवस्था करनी होती है। तदंपु रान्त उन ढ़गों तथा साधनों की व्यवस्था करनी होती है जिनके द्वारा नीतियों को कार्यान्वित कर लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। कार्य का निरन्तर मूल्यांकन भी करना होता है।

संगठन

संगठन से तात्पर्य किसी निश्चित उदेद्श्यों हेतु मानवी कार्यक्रमों का सचेतन समेकन है। इसमें अन्तनिर्भर अंगों को क्रमबद्ध तौर पर इकट्ठा करके एक एकत्रित समष्टि का रूप दिया जाता है। भूतकाल में समाज कल्याण न्यूनाधिक एक छितरायी एवं तदर्थ राहत क्रिया थी जिसका प्रशासन किसी व्यापक संगठनात्मक संरचनाओंं के बिना किया जाता था। जो कुछ भी कार्य किया जाना होता था, उसका प्रबन्ध सरल, तदर्थ, अनौपचिरिक माध्यम से सामुदायिक एवं लाभ भोक्ताओं के स्तर पर ही हो जाता था। एक अन्य तत्व जो समाज कल्याण की अनौपचारिक एवं असंगठित प्रकृति का कारण बना, वह अषासकीय एवं स्वयंसेवी कार्य पर निर्भरता था। सरकारी प्रक्रियाएँ जो विशाल संगठनात्मक संरचना तथा भारी नौकरशाही का रूप ले लेती है, से भिन्न अषासकीय क्रिया समाज कल्याण का मुख्य आधार रही जो अपनी प्राकृति के कारण अत्याधिक औपचारिक संगठित संयत्र पर कम आश्रित थी। परन्तु समाज कल्याण कार्यक्रमों के विस्तार तथा प्रभावित व्यक्तियों की संख्या एवं व्यथित धनराषि की मात्रा के कारण संगठन अपरिहार्य हो गया है।

संगठन औपचारिक एवं अनौपचारिक हो सकता है। औपचारिक संगठन में सहकारी प्रयासों की नियोजित प्रणाली है जिसमें प्रत्येक भागीदार की निश्चित भूमिका, कर्तव्य एवं कार्य होते है। परन्तु कार्यरत व्यक्तियों में सद्भावना एवं पारस्परिक विश्वास की भावनाएँ विकसित करने हेतु अनौपचारिक सम्बन्ध समाज कल्याण कार्यक्रमों के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक है।

संगठन के अन्तर्गत इसकी प्रभावी क्रियाशीलता के लिए कुछ सिद्धान्तों पर बल दिया जाता है। यह अपने सदस्यों के मध्य कार्य विभाजन करता है। यह विस्तृत प्रक्रियाओं के द्वारा मापक कार्यक्रमों की संस्थापना करता है, यह संचार प्रणाली की व्यवस्था करता है। इसकी पदोसोपानीय प्रक्रियायँ होती है जिससे सत्ता एवं दायित्व की रेखाएँ विभिन्न स्तरों के मध्य से शीर्ष तथा नीचे की ओर आती जाती है तथा आधार चौड़ा एवं शीर्ष पर एक अकेला अध्यक्ष होता है। इसमें आदेश की एकता होती है जिसका अर्थ है कि कोर्इ भी व्यक्ति कर्मचारी एक से अधिक तात्कालिक वरिष्ठ से आदेश प्राप्त नही करेगा, ताकि दायित्व स्पष्ट रहे और भ्राँति उत्पन्न न हो।

समाज कल्याण का स्वरूप संगठन कल्याण मंत्रालय के संगठन में देखा जा सकता है। इसमें मंत्री इसका राजनीतिक अध्यक्ष तथा सचिव प्रषासकीय मुख्य अधिकारी है। विभिन्न स्कीमों के लिए विभिन्न प्रभाग है, केन्द्रिय स्तर पर अधीनस्थ संगठन तथा राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा संस्थान विकंलागों के लिए राष्ट्रीय आयोग एवं अल्पसंख्यक आयोग है। राज्यों एवं संघ क्षेत्रों के स्तरो पर समाज कल्याण विभाग का संगठन किया गया है। तथा केन्द्रीय एवं राज्य दोनों स्तरो पर समाज के विभिन्न वर्गो, यथा महिला, बालक, अनुसूचित जातियाँ एवं जनजातियाँ, भूतपूर्व सैनिकों के कल्याण हेतु निगमों की स्थापना की जाती है, स्वयंसेवी संगठनों में भारतीय बाल कल्याण परिषद मुख्य संस्था है। कल्याण मंत्रालय कल्याणकारी क्रियाकलापों में मूल एवं मुख्य रूप संलग्न स्वयं सेवी संगठनों को संगठनात्मक सहायता देती है जिनका क्रियाक्षेत्र उनकी विभिन्न गतिविधियों के समन्वय हेतु केन्द्रीय कार्यालय की माँग करता है। स्थानीय स्तर पर कल्याणकारी सेवाओं का संगठन विदेशों में उनके प्रतिभागों की तुलना में कमजोर है। संगठन का कार्य बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि संस्था के कार्यो का सम्पादन संगठन पर ही निर्भर होता है। भूमिकाओं तथा परिस्थितियों का निर्धारण किया जाता है। घटकों के बीच सम्बन्धों को पारिभाषित किया जाता है तथा इसी के साथ उत्तरदायित्वों को भी स्पष्ट किया जाता है। संस्था के लक्ष्यों को ध्यान में रखकर संगठन की रूपरेखा तैयार की जाती है

कर्मचारियों का चयन

अच्छे संगठन की स्थानपा के बाद, प्रशासन की दक्षता एवं गुणवत्ता प्रशासन में सुप्रस्थापित कार्मिको की उपर्युक्तता से प्रभावित हेाती है। दुर्बल तौर पर संगठित प्रशासन को भी चलाया जा सकता है यदि इसका स्टाफ सुप्रशिक्षित बुद्धिमान कल्पनाशील एवं लगनशील हो। दूसरी ओर, एक सुनियोजित संगठन का कार्य असंतोष जनक हो सकता है। इस प्रकार स्टाफ शासकीय एवं अषासकीय दोनों प्रकार के संगठनों का अनिवार्य अंगभूत आधार है। भर्ती, चयन, नियुक्ति, वर्गीकरण, प्रशिक्षण, वेतनमान एवं अन्य सेवा शर्तो का निर्धारण, उत्प्रेरणा एवं मनोबल, पदोन्नति आधार एवं अनुशासन, सेवानिवृत्ति, संघ एवं समिति बनाने का अधिकार इन सब समस्याओं की उचित देख भाल आवश्यक है। जिससे कि कर्मचारी अपने कार्यो को सच्ची लगन से निष्पादन एवं संगठन का अच्छा चित्र प्रस्तुत कर सके। संस्था के कर्मचारियों का चयन प्रशासक का एक आवश्यक कार्य होता है क्योंकि इसी विशेष ता पर संस्था के कार्यो का सम्पादन निर्भर होता है। जिस प्रकार के कर्मचारी होते है उसी के अनुसार संस्था सेवायें प्रदान करती है। इस कार्य में निम्नलिखित बिन्दु महत्वपूर्ण होते है।
  1. कर्मचारी चयन, पदोन्नति आदि से सम्बन्धित नीति स्पष्ट होनी चाहिए। 
  2. कर्मचारियों की शिकायतों का निपटारा शीघ्र किया जाना चाहिए। 
  3. निर्णय पर बल दिया जाना चाहिए तथा दबाव के प्रभाव से उसे बदला नही जाना चाहिए। 
  4. सभी कर्मचारियों के स्पष्ट कार्य होने चाहिए तथा उसका उत्तरदायित्व निश्चित होना चाहिए। 
  5. कर्मचारियों में सहयोग की भावना विकसित करने के निरन्तर प्रयत्न किये जाने चाहिए। 
  6. सम्पेष््र ाण द्विमख्ु ाी होना चाहिए अर्थात् प्रशासन तथा कर्मचारियों की और से विचारों का परस्पर आदान-प्रदान होना चाहिए। 

निर्देशन 

निर्देशन से तात्पर्य है -संगठनों के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु आवश्यक निर्देश एवं दिशा निर्देश जारी करना तथा बाधाओं को दूर करना। कार्यक्रम के क्रियान्वन से सम्बन्ध निर्देशों में क्रियाविधि नियमों का भी उल्लेख होता है ताकि निर्धारित उदेद्श्य की उपलब्धि संक्षम एवं सुगम ढ़ग से हो सके। क्रियाविधि नियमों में यह भी वर्णित किया जाता है कि अभिकरण की किसी विशिष्ट गतिविधि से सम्बन्धित किसी प्रार्थना अथवा जाँच-पड़ताल पर किस प्रकार कार्यवाही की जाए। समाज कल्याण प्रशासन में निर्देश अपरिधर्म है। क्योंकि ये लाभभोक्ताओं को कल्याण सेवाएँ प्रदान करने में संलग्न अधिकारियोंं को दिशा निर्देश तथा योग्य प्रार्थियों को कोर्इ लाभ दिये जाने से पूर्व अनुपालित क्रियाविधि के बारे में जानकारी प्रदान करते है। परन्तु क्रियाविधि की कठोरता से अनुपालन लालफिता शाही को जन्म दे सकता है जिसमें जरूरतमंद व्यक्तियों को वाछिंत लाभ प्रदान करने में अनावष्यक देरी तथा परेशानी हो जाती है। समाज कल्याण प्रशासन के कार्मिकों द्वारा अपने दायित्व पर कोर्इ निर्णय लेने से बचना तथा दायित्व दूसरे पर थोपना व्यक्तियों एवं समुदायों की प्रभावी सेवा को बाधित करने वाला दोष है जिसके विरूद्ध सुरक्षा की जानी आवश्यक है। संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर्मचारियों को दिशा-निर्देश देना आवश्यक होता है। निर्देशन के निम्नलिखित उद्देश्् य है:-
  1. यह देखना कि कार्य नियमों तथा निर्देशों के अनुरूप हो रहा है।
  2. कर्मचारियों की कार्य सम्पादन में सहायता प्रदान करना। 
  3. कर्मचरियों में हीन भावना एवं सहयोग की भावना बनाये रखना। 
  4. कार्य का स्तर बनाये रखना। 
  5. कार्यक्रम की कमियों से परिचित होना तथा उसको दूर करने का प्रयास करना। 
  6. समन्वय का तात्पर्य एक सामान्य क्रिया, आन्दोलन या दशा को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न अंगों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना होता है। 

    संस्था में समन्वय के दो महत्वपूर्ण कार्य है : उद्देश्यों तथा क्रियाओं में एक रूपता स्थापित करना तथा किये जाने वाले कार्यो में एकता लाना लेकिन यह तभी सम्भव है जब संस्था का प्रत्येक सदस्य सामान्य दृष्टिकोण रखता हो।

    प्रत्येक संगठन में कार्य विभाजन एवं विषिष्टिकरण होता है। इससे कर्मियों के विभिन्न कर्तव्य नियत कर दिए जाते है तथा उनसे प्रत्याशा की जाती है कि वे अपने सहकर्मियों के कार्य में कोर्इ हस्तक्षेप न करे। इस प्रकार प्रत्येक संगठन में कर्मिकों के मध्य समूह भावना से कार्य करने तथा कार्यो के टकराव एवं दोहरेपन को दूर करने का प्रयास किया जाता है। कर्मचारियों में सहयोग एवं टीम वर्क को विश्वस्त करने के इस प्रबन्ध केा समन्वय कहते है। इसका उदे्दश्य सांमजस्य, कार्य की एकता एवं संघर्ष से बचाव को प्राप्त करना है। इसके उद्ेदश्य को दृष्टि में रखते हुए, मूने एवं रेले समन्वय को संगठन का प्रथम सिद्धान्त तथा अन्य सब सिद्धान्तों को इसके अधीन समझते है। क्योकि यह संगठन के सिद्धान्तों का यौगिक तौर पर प्रकटीकरण करता है। चाल्र्सवर्थ के अनुसार ‘‘समन्वय का अर्थ है उपक्रम के उदे्देश्य को प्राप्त करने के लिए कर्इ भागों को एक सुव्यवस्थित समग्रता में समेकन।

    न्यूमैन के अनुसार ‘‘समन्वय का अर्थ है प्रयासों का व्यवस्थित ढ़ग से मिलाना ताकि निर्धारित उदेद् “यों की प्राप्ति के लिए निष्पदन कार्य की मात्रा तथा समय को ठीक ढ़ग से निर्देषित किया जा सके। समाज कल्याण में समन्वय का केन्द्रीय महत्व है क्योंकि समाज कल्याण कार्यक्रमों में अनेक मंत्रालय, विभाग एवं अभिकरण कार्यरत है जिनमें कार्य के टकराव एवं दोहरेपन के दोष पाये जाते है जिससे मानव प्रयास एवं संसाधनों का अपव्यय होता है। इस समय केन्द्रीय स्तर पर कल्याण सेवाओं में कार्यरत 6 मंत्रालय है तथा कल्याण प्रशासन के क्रियान्वन में विषयों की छिन्न भिन्नता, अनुदान देने वाले निकायों की बहुलता, संचार में देरी तथा सहयोगी प्रयासों के प्रति विमुखता अधिक दिखार्इ देती है। इसी प्रकार, राज्य स्तर पर विभिन्न राज्यों में सात में सत्रह तक विभाग कल्याणकारी मामलों में सम्बद्ध है एवं कल्याणकारी सेवाओं के कार्यक्रमों में उपागम की एकता, संगठन में समरूपता एवं क्रियान्विति में समन्वय का अभाव पाया जाता है। स्वयंसेवी संगठन भी कल्याणकारी सेवाओं में कार्यरत है। उनके मध्य तथा उनके एवं सरकारी विभागों के मध्य समन्वय की समस्याएँ जटिल से जटिलतर होती जा रही है, जैसे-जैसे सहायता अनुदानों में उदारता आने के कारण उनकी संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है।

    विभिन्न मंत्रालयों, विभागों एवं स्वयंसेवी संगठनों के मध्य समन्वय को अन्र्तविभागीय एवं विभागांतर्गत सम्मेलनों, विभिन्न हित समूहों के गैर-सरकारी प्रतिनिधियों को परामर्श हेतु सम्मिलित करके द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। अत: कल्याण मंत्रालय राज्य सरकारों एवं केन्द्रषासित प्रदेशों के समाज कल्याण मंत्रियों तथा विभाग सचिवों का वार्षिक सम्मेलन समाज कल्याण के विविध मामलों एवं कार्यक्रमों पर विचार विमर्श एवं उनके प्रभावी क्रियान्वयन को आष्वस्त करने तथा दोहरेपन से बचने हेतु बुलाता है। संस्थागत अथवा संगठनात्मक विधियों, यथा अन्तर्विभागीय समितियों एवं समन्वय अधिकारियों, प्रक्रियाओं एवं विधियों के मानकीकरण, कार्यकलापों के विकेन्द्रीकरण आदि के द्वारा भी समन्वय प्राप्त किया जा सकता है। 1953 में स्थापित केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड जिसमें सरकारी अधिकारी तथा गैर-सरकारी समाजिक कार्यकर्ता सम्मिलित है, को समाज कल्याण कार्यक्रमों में कार्यरत सरकारी संगठनों एवं स्वयंसेवी संगठनों के मध्य उचित समन्वय प्राप्त करने का एक माध्यम बनाया गया है। राज्यीय समाज कल्याण परामर्शदात्री बोर्डो को भी राज्य सरकार एवं केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड के कार्यकलापों के मध्य अन्य कार्या सहित समन्वय लाने तथा दोहरेपन को दूर करने का कार्य सुर्पुद किया गया। परन्तु समन्वय हेतु इन संस्थागत प्रबन्धों के बावजूद भी सरकारी एवं स्वयंसेवी संगठनों के क्षेत्राधिकारों मे कल्याण कार्यक्रमों में टकराव एवं दोहराव के दोष पाये जाते है। सरकारी एवं स्वयंसेवी संगठनों के कार्यकलापों के क्षेत्रों का सुस्पष्ट सीमांकन, कल्याण सेवाओं की समेकित विकास नीति एवं प्रेरक नेतृत्व कल्याण सम्बन्धी उद्देश्यों की अधिकतम प्राप्ति हेतु उचित समन्वय विश्वस्त करने में काफी सहायक होगे।

    प्रतिवेदन

    प्रतिवेदन का अर्थ है, वरिष्ट एवं अधिनस्थ अधिकारियों को गतिविधियों से सूचित रखना तथा निरीक्षण, अनुसंधान एवं अभिलेखों के माघ्यम से तत्सम्बधी सूचना एकत्रित करना। प्रत्येक समाज कल्याण कार्यक्रम के कुछ लक्ष्य एवं उद्देश्य होते है। संगठन की सोपानात्मक प्रणाली में मुख्य कार्यकारी निचले स्तरों पर कार्य कर रहे कर्मचारियों की नीति, वित्तिय परिव्यय एवं निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति हेतु समय सीमा से अवगत कराता है अधीनस्थ कर्मचारी उच्च अधिकारियों को समय-समय पर मासिक, त्रैमासिक एवं वार्षिक, लक्ष्यों के सापेक्ष में प्राप्त उपलब्धि, व्ययित राशि, एवं सामने आयी समस्याओं, यदि कोर्इ है, तथा इन समस्याओं के समाधान हेतु उनका मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए रिपोट भेजते है। विभिन्न मामलों के समाधान हेतु अभिकरण एवं अन्तर्भिकरण स्तर पर आयोजित सम्मलनों एवं विचार विमर्शो की सूचना भी भेजी जाती है। उच्च अधिकारी अधीनस्थ कार्यालयों का निरीक्षण उनके कार्यकलापों की जानकारी प्राप्त करने एवं अनियमितताओं को पकड़ने तथा इनको भविष्य में दूर करने हेतु सुझाव देने के लिए समय-समय पर करते है। कभी-कभी किसी शिकायत की प्राप्ति पर समाज कल्याण अभिकरणों की गतिविधियों की जाँच पड़ताल करनी होती है जिसके निष्कर्षो से सम्बन्धित अधिकारियों को सूचित किया जाता है। कुछ कल्याण संगठन शोधकार्य भी करते हैं जिसके निष्कर्षो एवं सुझावों को नीतियों एवं कार्यक्रमों में संशोधन अथवा अन्य नयें कार्यक्रमों के निर्माण में प्रयोग हेतु प्रतिवेदन कर दिया जाता है।

    रिपोटिंग

    सभी समाज कल्याण एजेंन्सिया, बिना किसी अपवाद के सम्बन्धित मंत्रालय विभाग को अपना वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करते है जो राज्य के अध्यक्ष को विधानमंडल की सूचना हेतु अन्तत: भेज दी जाती है। विभिन्न प्रकार की रिपोर्टो के द्वारा जनता को कल्याण एजेन्सियों के क्रियाकलापों की सूचना मिल जाती है। इस प्रकार रिपोटिंग किसी भी समाज कल्याण प्रशासन का एक महत्वपूर्ण घटक है।प्रतिवेदन के माध्यम से तथ्यों को प्रस्तुत किया जाता है। इसमें एक निश्चित अवधि में किये गये कार्यो का सारांश लिखा जाता है एक निश्चित अवधि के आधार पर प्रतिवेदन तैयार किया जाता है। संस्था के कायोर् की प्रगति का मूल्यांकन करने की दृष्टि से प्रतिवेदन का विशेष महत्व है। संस्था में उपलब्ध आलेखों के आधार पर प्रतिवेदन तैयार किया जाता है।

    वित्तीय प्रबन्ध

    वित्तीय प्रबन्ध बजट से अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा सार्वजनिक अभिकरण की वित्तिय नीति कर निर्माण, विधिकरण एवं क्रियान्वन किया जाता है। व्यक्तिवाद के युग में, बजट अनुमानित आय एवं व्यय का सधारण विवरण मात्र था। परन्तु आधुनिक कल्याण राज्य में सरकार के क्रियाकलापों में तेजी से वृद्धि हो रही है जो सामाजिक जीवन के सभी पक्षों को आवंटित करती है। सरकार अब सकारात्मक कार्यो के द्वारा नागरिकों के सामान्य कल्याण को उत्पन्न करने का एक अभिकरण है। अतएव बजट को अब एक प्रमुख प्रक्रिया समझा जाता है जिसके द्वारा जनसंसाधनों के प्रयोग केा नियोजित एवं नियंत्रित किया जाता है। बजट निर्माण वित्तिय प्रबन्ध का एक प्रमुख घटक है जिसमें विनियोग अधिनियम, व्यव का कार्यकारिणी द्वारा निरीक्षण, लेखा एवं रिपोटिंग प्रणाली का नियंत्रण, कोष प्रबन्ध एवं लेखा परीक्षण सम्मिलित है। प्रशासक का कार्य प्रतिवर्ष वार्षिक बजट तैयार करना तथा उसे अनुमोदित करना होता है। संस्था के लक्ष्यों के अनुरूप ही बजट तैयार किया जाता है यह संस्था कि आय तथा व्यय का कथन होता है।

    समाज कल्याण प्रशासन के सिद्धान्त 

    यद्यपि समाज कल्याण प्रशासन में किसी आधिकारिक अथवा सरकारी तौर पर संस्थापित प्रशासकीय मापदण्डों का अभाव है, तदापि निम्नलिखित सिद्धान्तों को समाज कल्याण व्यवहार एवं अनुभव होने के कारण सामान्य मान्यता दी गर्इ है एवं जिनका पालन सुप्रशासित सामाजिक अभिकरणों द्वारा किया जाता है-
    • समाज कल्याण अभिकरण के उद्देश्यों कार्यो का स्पष्ट रूप से वर्णन होना चाहिए। 
    • इसका कार्यक्रम वास्तविक आवश्यक ताओं पर आधारित होना चाहिए, इसका कार्यक्षेत्र एवं भू-क्षेत्र उस सीमा तक जिसमें यह प्रभारी तौर पर कार्य कर सकती है सीमित होना चाहिए, यह समुदाय के संसाधनों, प्रतिरूपों एवं समाज कल्याण अवाष्यकताओं से सम्बन्धित होना चाहिए, यह स्थिर होने की अपेक्षा गतिमान होना चाहिए तथा इसे बदलती हुर्इ आवश्यक ताओं को पूरा करने के लिए बदलते रहना चाहिए। 
    • अभिकरण सुसंगठित होना चााहिए, नीति निर्माण एवं क्रियान्वन में स्पष्ट अन्तर होना चाहिए, आदेश की एकता, अर्थात् एक ही कार्यकारी अध्यक्ष द्वारा प्रषासकीय निदेषन, प्रशासन की सामान्य योजना अनुसार कार्यो का तर्कयुक्त विभाजन, सत्ता एवं दायित्व का स्पष्ट एवं निश्चित सममनुदेशन, तथा संगठन की भी इकाइयों एवं स्टाफ सदस्यों का प्रभारी समन्वय।
    • अभिकरण को उचित कार्मिक, नीतियों एवं अच्छी कार्यदशाओं के आधार पर कार्य करना चाहिए। कर्मचारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर होनी चाहिए तथा उन्हें समुचित वेतन दिया जाना चाहिए। कर्मचारियों वर्ग अभिकरण की आवश्यक ताओं को पूरा करने के लिए मात्रा एवं गुण में पर्याप्त होना चाहिए। 
    • भिकरण मानक सेवा की भावना से ओतप्रोत होकर कार्य करे, इसे उन व्यक्तियों एवं उनकी आवश्यक ताओं की समुचित जानकारी होनी चाहिए जिनकी यह सेवा करना चाहता है। इसमें स्वतंत्रता, एकता एवं प्रजातंत्र की भावना भी होनी चाहिए। 
    • अभिकरण से सम्बन्धित सभी में कार्य की ऐसी विधियों एवं मनोवृत्तियों विकसित होनी चाहिए जिससे उचित जन सम्पर्क का निमाण हो।
    • अभिकरण का वार्षिक बजट होना चाहिए। लेखा रखने की प्रणाली ठीक होनी चाहिए। एवं इसके लेखों का सुयोगय व्यावसायिक एजेंसी द्वारा जिसका अपना कोर्इ हित नही है, परीक्षण होना चाहिए। 
    • यह अपने रिकार्ड को ठीक प्रकार से सरल एवं विस्तार से रखे जो आवश्यक ता के समय सुगमता ये उपलब्ध हो सके। 
    • इसकी लिपिकिय एवं अनुरक्षण सेवाएँ भी मात्रा एवं गुण में पर्याप्त तथा क्रियान्वयन में दक्ष होनी चाहिए। 
    •  अभिकरण उपयुक्त अन्तराल पर स्वमृल्यांकन करे। गत वर्ष की अपनी सफलताओं एव असफलताओं का अपनी वर्तमान प्रस्थिति एवं कार्यक्रमों का, उद्देश्यों एवं संस्थापित मानदण्डों के अनुसार मापित अपने निष्पादन का, अपनी शक्ति एवं कमजोरियों का अपनी वर्तमान समस्याओं का तथा अपनी सेवा को बेहतर बनाने के लिए अगले उपायों का लेखा-जोखा लेने के लिए। 

    समाज कल्याण प्रशासन में अनुश्रवण व मूल्यांकन 

    समाज कल्याण प्रशासन के अनुश्रवण व मूल्यांकन से हमारा अभिप्राय है संस्था द्वारा अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनार्इ गर्इ क्रियाविधियों की उपयोगिता और प्रभाविता की जाँच मूल्योकन मुख्यत: किसी संस्था के विगत अनुभवों का अध्ययन और आलोचना है। इसके अंतर्गत अनेक समूहों के बीच विकसित परस्पर सबंधों का का आलोचनात्मक विश्लेषण आता है।  इसका उद्देष्य है परिणामों को मापना आरै संग्रहीत प्रतिमानों के आधार पर लक्ष्यों और पद्धतियों में परिवर्तन लाना। अनुश्रवण व मूल्यांकन संस्था में कार्य काने वाले व्यक्तियों और समूहों में निरंतर दृढ़ता उत्पन्न करने का साधन बनता है। मूल्यांकन के कुछ कार्य निम्नलिखित है-
    1. संस्था की प्रगति को मापना। 
    2. आयोजन और नीति निर्धारण के लिए आवश्यक आँकड़ों का संग्रहण, 
    3. सामजिक परिवर्त्त्ानों के संदर्भ में संस्था के कार्यक्रमों की प्रभावित की जाँच करना, 
    4. भावी गलतियों और कमजोरियों से बचने के लिए उपलब्धियों का मूल्यांकन करना। 
    5. इसका अध्ययन करना कि संस्था की नीति और उद्देश्य की पूर्ति किस सीमा तक हो रही है।
    6. संस्था के कार्य में प्रयोग मे लार्इ जाने वाली तकनीकों और कुशलताओं में सुधार लाने के लिए उनका अध्ययन करना। 
    7. एक संस्था का दूसरी संस्थाओं के साथ संबंध को समझना और समाज कल्याण कार्यो में जन-सहयोग की माख का पता चलाना ताकि सेवाओं के दोहराव को रोका जा सके,
    8. यह देखना कि संस्था के कार्यक्रम का लाभ सेवार्थियों को पहुँच रहा है या नही। 
    9. संगृहीत आँकड़ों के आधार पर संस्था के आगामी कार्यक्रम का आयोजन करने के लिए मूल्यांकन उपयोगी है। 
    10. संस्था के कार्यक्रम में सुधार लाने के लिए उसके उद्देष्यों और कार्यक्रमों का व्यापक अध्ययन करना। 

    कार्मिक प्रबंध 

    स्वैच्छिक संस्थाओं में कार्मिक प्रबंध की स्थिति बहुत असंतोषजनक है। कार्यकर्त्त्ााओं में से केवल 18 प्रतिषतसमाज कार्य पर्यवेक्षक के कार्य में संलग्न है। शेष 82 प्रतिषतसमाज कार्य के अतिरिक्त कर्मचारी है- जैसे दफ्तर में कार्य करने वाले लिपिक तथा निम्नवर्गीय कर्मचारी। उपर्युक्त 82 प्रतिषतमें से 20 प्रतिषतस्नातकोत्त्ार और और 7 प्रतिषतस्नातक है। तीन-चौथार्इ के लगभग कार्मिक माध्यमिक स्तर तक भी शिक्षा प्राप्त नही है।

    कर्मवारी वर्ग श्रेष्ठ प्रशासन का महत्वपूर्ण और आधुनिक उपकरण माना जाता है। समाज कार्य के क्षेत्र में भी, जो व्यवसायों की तरह एक व्यवसाय है, उसका महत्व कम नही है। समाज कार्य में प्रशिक्षित कार्यकत्त्ााओं की उतनी ही आवश्यक ता है जितनी की दूसरे व्यवसायों में। प्रत्येक समाज कार्य संस्था में सेवा के स्तर को ऊँचा रखने के लिए प्रशिक्षित और अनुभवी कार्यकत्त्ााओं को नियुक्ति करना आवश्यक ही नही, अनिवार्य है।

    कार्मिक नीति

    प्रत्येक संस्था की प्रबंध-समिति द्वारा कार्मिक-संबंधी सुदृढ़ और स्पष्ट बनार्इ जानी चाहिए। पश्चिमी देशों में संस्थाओं की कार्मिक-संबंधी नीति का विवरण संस्था की नियम-पुस्तिका में दिया जाता है। भारत में संस्थाओं को ऐसी नियम पुस्तिका बनानी चाहिए, जिसमें कार्मिक प्रबंध के नियम, पद्धति कर्मचारियों के प्रकार, नियुक्ति, वेतन, प्रशिक्षण, परस्पर संबंध आदि के विषय में विस्तृत ब्यौरा हो। इस पुस्तिका में कर्मचारियों के कार्य, उनके मूल्यांकन, परियोग्यताओं, कार्मिक के सहयोग आदि के विषय में चर्चा होनी चाहिए।

    कार्मिकों की नियुक्ति 

    संस्था में आवश्यक कर्मचारियों की नियुक्ति संस्था की नीति के अनुसार करनी चाहिए। प्रत्येक कार्य के लिए न्यूनतम शिक्षा, प्रशिक्षण तथा व्यावहारिक अनुभव आदि की शर्ते निर्धारित करनी चाहिए। योग्य कर्मचारियों के चुनाव के लिए समाचार पत्रों में पदों का विज्ञापन देना चाहिए। समाज कार्य विद्यालय तथा दूसरी सामाजिक संस्थाओं को भी खाली पदों के विषय में सूचित करके प्रार्थना पत्र मगँवाये जा सकते है। संस्था में कार्य करने वाले कर्मचारियों को भी इस खाली पदों के लिए आवेदन करने के लिए अनुमति होनी चाहिए।

    समाज कार्य के पदों के लिए समाज कार्य में प्रशिक्षण एक आवश्यक शर्त होनी चाहिए। पदों के लिए प्रार्थियों का लिखित प्रार्थना-पत्र संस्था को भेजने चाहिए, जिसमें उनकी शिक्षा, प्रशिक्षण, पिछले अनुभवों, आयु आदि के विषय में विस्तृत विवरण हो। इन प्रार्थना पत्रों को जाँच के बाद चुने हुए योग्य प्रार्थियों को संस्था के द्वारा बनार्इ कार्मिक समिति के समक्ष साक्षात्कार के लिए बुलाना चाहिए। इस समिति में संस्था के अध्यक्ष, मंत्री तथा मुख्य कार्यपालक के अतिरिक्त समाज-कार्य के विशेष ज्ञ होने चाहिए। यदि प्राथमिक चुनाव कार्यपालक अथवा उप-समिति के द्वारा किया गया हो तो दो तीन चुने हुए प्रार्थियों के प्रार्थना पत्र उप-समिति को सिफारिश सहित संस्था की प्रबंध/कार्यकारी समिति के सामने अंतिम नियुक्ति के लिए रखने चाहिए। औपचारिक तौर पर, उन प्रार्थियों को, जिनकी नियुक्ति समिति के द्वारा नही की गर्इ हैं इस विषय में सूचित कर देना चाहिए।

    प्रशिक्षण, अभिनवीकरण तथा पुनष्चर्या 

    प्रत्येक नवनियुक्ति कर्मचारी को बातचीत द्वारा और संस्था की प्रकाषितपुस्तिकाओं और प्रतिवेदनों द्वारा संस्था के संगठनात्मक ढ़ाँचे और कार्यक्र के विषय में जानकारी देनी चाहिए। नए कार्यकर्त्त्ाा को उस भवन में ले जाकर, जहाँ कार्यक्रम चल रहा हो, कार्यक्रम, कार्यकर्त्त्ााओं के दायित्व, काम के समय आदि के विषय में बताना चाहिए और दूसरे कार्यकत्त्ााओं से उनकी भेंट करवानी चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक नवनियुक्ति कार्यकर्त्त्ाा का, संस्था और उसको सांपै े गए काम के बारे में परिचय करवाकर अभिनवीकरण करवाना लाभदायक होगा। यह जानकारी, उसके लिए संस्था में अपना दायित्व भलीभाँति निभाने में सहायक सिद्ध होगी। संस्था के मुख्य अधिकारी के साथ बातचीत और दूसरे संबद्ध कार्यकत्त्ााओं के साथ बंठै के अभिनवीकरण के कार्य को सरल बनाएँगी। यही नही, संस्था के विभिन्न अनुभागों और दूसरी संस्थाओं के साथ मेलजोल और बैठकें करने से कर्मचारियों के व्यावसायिक विकास में सहायता मिलेगी।

    प्रशिक्षण 

    पुराने जमाने में जरूरतमंदों की समस्याओं का समाधान स्वैच्छिक कार्यकत्त्ााओं द्वारा चलार्इ जोन वाली संस्थाएँ करती थी। अब यह तान लिया गया है कि सामाजिक संस्थाओं में सेवार्थियों तक सेवाएँ पहुँचाने का कार्य केवल प्रशिक्षित कार्यकर्त्त्ाा को ही करना चाहिए। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हमारे देया में समाज कार्य के व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता के प्रति जागरूकता हाल ही में उत्पन्न हुर्इ है। अब यह विश्वास पुराना हो चुका है कि समाज कार्य के केवल समय, सद्भावना और त्याग की ही जरूरत है। अब स्वैच्छिक कार्यकर्त्त्ाा भी इस बात को स्वीकार करने लगे है कि समाज कार्यो के लिए प्रशिक्षित कार्यत्त्ााओं होने चाहिए। संस्थाओं में प्रशिक्षित कार्यकत्त्ााओं की नियुक्ति की आवश्यक ता के प्रति जन-जाग्रति के साथ-साथ बदलती हुर्इ परिस्थितियों के कारण ऐसे कार्यकत्त्ााओं की माँग बढ़ी है। तेजी से हुर्इ सामजिक समस्याओं और सामाजिक विज्ञान की प्रगति के कारण समस्याओं का अध्ययन, विश्लेषण और समाधान वैज्ञानिक तरीके से करना अब आवश्यक हो गया है। इसलिए प्रशिक्षित कार्यकत्त्ााओं की माँग पैदा हो रही है।

    भारत में समाज-कार्य का पहला महाविद्यालय सन् 1936 र्इ0 में बंबर्इ में स्थापित हुआ। वर्तमान में बहुत से प्रदेषों में स्वैच्छिक संस्थाओं अथवा विश्वविद्यालयों द्वारा ऐसे महाविद्यालय स्थापित किये गये है। प्रत्येक वर्ष 500 के लगभग स्नातक इन प्रशिक्षण-संस्थाओं में तैयार किये जाते है। कर्इ कारणों से स्वैच्छिक संस्थाएँ ऐसे प्रशिक्षित कार्यकत्त्ााओं की नियुक्ति नही कर पार्इ है। समाज कार्य के क्षेत्र में कार्यकत्त्ााओं की माँग को दृष्टिगत रखते हुए कर्इ स्वैच्छिक संस्थाओं के अवर-स्नातक-स्तरपर समाज कार्य का प्रशिक्षण आरंभ किया है। दिल्ली, नागपुर, पूना और शांति-निकेतन ऐसी संस्थाएँ काम कर रही है।

    इसके अतिरिक्त केन्द्रीय समाज-कल्याण बोर्ड द्वारा स्थापित किये गये प्रशिक्षण केन्द्रों में बाल सेविकाओं और मुख्य सेविकाओं को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। भारतीय बाल कल्याण परिषद केन्द्रीय समाज कल्याण विभाग के अनुदान के द्वारा कर्इ स्थानों पर बाल सेंविका प्रशिक्षण-केन्द्र चला रही है। नन्ही दुनिया, देहरादून, बालकन-जी-बारी, बंबर्इ, बाल निकेतन संघ, इन्दौर, नूतन बाल शिक्षण-संघ, कोसबाद, दक्षिणामूर्ति, भावनगर आदि कर्इ संस्थाओं में बालबाड़ी-कार्यकत्त्ााओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था है। लखनऊ और हैदराबाद में साक्षरता निकेतन ने प्रौढ़-साक्षरता की व्यवस्था की है। इस प्रकार, समाज कल्याण के अनेक कार्यकत्त्ााओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था स्वैच्छिक संस्थाओं ने ही की है।

    संस्था को किस प्रकार के कार्यकत्त्ााओं की आवश्यक ता हैं, यह संस्था के कार्यो पर निर्भर है। यहाँ सभी प्रकार के प्रशिक्षणों के विषय में पूरा विवरण देना सम्भव नही है। अखिल भारतीस स्वैच्छिक, समाज कल्याण विभागों, केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड, जन सहयोग में प्रशिक्षण और अनुसंधान के केन्द्रीय संस्थान आदि संस्थाओं में प्रशिक्षित कार्यकर्त्त्ाा के विषय में जानकारी मिल सकती है। समाज कार्य के कार्यकत्त्ााओं के अतिरिक्त दूसरे कर्इ कार्यकर्त्त्ाा, जैसे दार्इ, मिडवाइफ, शिल्प-शिक्षक, नर्स परिवार नियोजन कार्यकर्त्त्ाा आदि, संस्थाओं के लिए आवश्यक है। इन कार्यकत्त्ााओं के समाज की पद्धतियों में अभीनवीनीकरण की आवश्यक ता है।

    सेवांतर्गत प्रशिक्षण 

    यद्यपि संस्थाओं की कार्य-पद्धतियों को सुधारने के लिए उनके कार्यकत्त्ााओं को सेवांतर्गत प्रशिक्षण देना एक आवश्यक कदम था, तथापि केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने, जिस पर इसकी जिम्मेदारी थी, ऐसा कोर्इ कार्य आरम्भ नही किया। केन्द्रीय समाज कल्याण विभाग ने स्वैच्छिक संस्थाओं के कार्यकत्त्ााओं को समाज-कार्य में अभिनवीनीकरण प्रशिक्षण देने के लिए समाज-महाविद्यालयों और संस्थाओं को अनुदान देकर गोष्ठियों का आयोजन किया था।

    जन सहयोग में अनुसंधान और प्रशिक्षण के केन्द्रीय संस्थान की स्थापना के पश्चात् कर्मचारियों के प्रशिक्षण का कार्य इस संस्थान को सौंपा गया है। संस्थान स्वैच्छिक संस्थाओं के कार्यकत्त्ााओं के लिए गोष्ठियाँ तथा सेवांतर्गत प्रशिक्षण का आयोजन करता है। संस्थाओं के कार्यपालको के लिए संस्थान के पाठ्यक्रमों का आयोजन किया। बाल-कल्याण संस्थाओं के पर्यवेक्षकों के भी लगभग चार प्रशिक्षण कार्यक्रम पूरे हो चुके है। स्वैच्छिक नेताओं के लिए भी गोष्ठियों का आयोजन किया गया है। युवा नेताओं के प्रशिक्षण-पाठ्यक्रमों की भी व्यवस्था संस्थान करता है। ऐसे प्रशिक्षण प्रत्येक प्रकार के कार्यकत्त्ााओं की आवश्यक ताओं को पूरा करने के लिए आयोजित किये जाते है। समाज कार्य महाविद्यालयों की सहायता से संस्थान की स्थानीय भाषाओं के माध्यम से क्षेत्रीय स्तर पर ऐसे ही पाठ्यक्रमों का आयोजन किया गया था। संस्थान स्वैच्छिक कार्य संस्थाओं के कार्यकत्त्ााओं के प्रशिक्षण के क्षेत्र में विद्यमान बहुत बड़ी को पाटने की दिशा में प्रयत्नशील है।

    सेवा की शर्ते

    स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा अपने कार्यकत्त्ााओं के विकास के लिए संभवत: कोर्इ योजना नही बनार्इ गर्इ है। समान्यतया संस्थाओं में सेवा की शर्ते बहुत ही असंतोषजनकहै।  विशेष कर वेतनमान इतने अधिक नही है कि अच्छे कार्यकत्त्ाार् इन संस्थाओं में सेवा के लिए आगे आएँ। जो व्यक्ति इन संस्थाओं में भर्ती भी होते है, वे शीघ्र ही सेवामुक्त होने का प्रयत्न करते है। संस्थाओं में योग्य और अनुभवी कर्मचारियों के अभाव का मुख्य कारण उनकी सेवा की असंतोषजनक शर्ते है। इसके अतिरिक्त चूँकि स्वैच्छिक संस्थाओं में पर्यवेक्षक का कार्य स्वैच्छिक कार्यकर्त्त्ाा करते है, इसलिए भी बहुत से प्रशिक्षित स्वैच्छिक संस्थाओं में नौकरी के लिए प्राथ्र्ाी नही होते है। इसलिए यह आवश्यक है कि स्वैच्छिक संस्थाओं में कार्मिक नीति के अंतर्गत कर्मचारियों की सेवा की शर्तो का विवरण होना चाहिए। इन शर्तो में वेतनमान तथा भत्त्ाा, नियुक्ति, प्रोन्नति, काम का समय, अवकाश की शर्ते, सेवा-विमुक्ति दंड, परीविक्षा काल आदि सम्मिलित होने चाहिए। वे शर्ते संस्था की नियम पुस्तिका में दर्ज होनी चाहिए।

    उपस्थिति एवं कार्यकाल 

    कर्इ बार देखा गया है कि स्वैच्छिक संस्थाओं के कर्मचारियों के लिए काम की कोर्इ अनिश्चित अवधि नही है। कही-कहीं तो वे 10-12 घंटे तक कार्य करते है और कहीं-कहीं 6 घंटे से भी कम। कर्मचारियों के काम के समय का निर्धारण कर देना चाहिए ताकि वे लगभग 8 घंटे तक कार्य कर सके, जिसमें एक घंटे का विश्राम भी सम्मिलित हो। क्षेत्रीय कार्यकत्त्ााओं के कार्य का समय उनके काम के स्वरूप पर निर्भर करता है। प्रत्येक अनुभाग अथवा शाखा में यदि आवश्यक हो तो संस्था के कर्मचारियों के लिए एक हाजिरी रजिस्टर भी रखना चाहिए, जिसमें काम पर पहुँचने के निर्धारित समय के अधिक से अधिक 10 मिनट पश्चात् तक कर्मचारी अपने हस्ताक्षर कर दे। यदि कोर्इ कर्मचारी समय पर नही पहुँचता है तो उसके नाम के समाने अनुपस्थिति का चिह्न लगा देना चाहिए। तीन बार से अधिक समय पर न पहुँचने पर एक दिन की छुट्टी काट लेनी चाहिए। अनुपस्थिति का ब्यौरा रखने कि लिए और इस बात पर ध्यान रखने के लिए कि कर्मचारी काम पर निर्धारित समय पर पहुँचते है, संस्था के पर्यवेक्षक को हाजिरी रजिस्टर निर्धारित समय के 15 मिनट के बाद देख लेना चाहिए। जो कर्मचारी आदतन देर से आते हों, उन पर नजर रखनी चाहिए और उनकी कठिनार्इयों को दूर करने में सहायता करनी चाहिए। कार्यकर्त्त्ाा को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि उनका काम निर्धारित समय से आरंभ हो जाना चाहिए। हाजिरी-रजिस्टर एक आवश्यक अभिलेख है। इसके आधार पर ही कर्मचारियों के वेतन बिल बनते है। इसलिए इसके अनुरक्षण के लिए पर्यवेक्षक को विशेष ध्यान देना चाहिए।

    मध्याहृन-अवकाश: 

    तीन-चार घंटे कार्य करने के पश्चात् कमचारियों को आधे घंटे के लगभग मध्याहृ-अवकाश मिलना चाहिए तीन घंटे लगातार कार्य करने के उपरांत यह विश्राम अत्यावाश्यक है। इससे कार्यकर्त्त्ाा की दक्षता बढ़ती है। पर्यवेक्षक को इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि सभी कर्मचारी इस समय का सदुपयोग करे।

    अवकाश नियम: 

    संस्था को अवकाश नियम बनाने चाहिए, जिनकी जानकारी कर्मचारियों को होंनी चाहिए। यह कोर्इ जरूरी नही है कि प्रत्येक संस्था सरकारी अवकाश-नियमों का पालन करे। किन्तु संस्था को कुछ सरल नियम बना ही लेने चाहिए, जिसमें अल्प और दीर्घकालीन अवकाश की व्यवस्था होनी चाहिए। कर्मचारियों के अवकाश की व्यवस्था के लिए निम्नलिखित मोटी-मोटी बातों का ध्यान रखना चाहिए:-
    • अवकाश स्थानीय सरकार के द्वारा स्वीकृत अवकाश-सूची संस्थाओं को अपनानी चाहिए। इसके अतिरिक्त सप्ताह में किसी एक दिन संस्था को पूर्ण अवकाश रखना चाहिए और उससे एक दिन पहले अर्द्ध-अवकाश की व्यवस्था करनी चाहिए। 
    • आकस्मिक छुट्टी अल्पावधि की बीमारी, निजी आवश्यक कार्य आदि के लिए प्रत्येक कर्मचारी को दस से पन्द्रह दिन तक की आकस्मिक छुट्टी मिलनी चाहिए। यह छुट्टी कर्मचारी की प्रार्थना पर स्वीकृत की जानी चाहिए । 
    • अर्जित छुट्टी आकस्मिक छुट्टी के अतिरिक्त, कर्मचारियों की लम्बी बीमारी, निजी काम, विश्राम और मंनोरजन के लिए प्रत्येक मास की सेवा पश्चात् एक दिन और वर्ष पूरा होने के बाद 20 दिनों की अर्जित छुट्टी मिलनी चाहिए। प्राय: तीन मास से अधिक छुट्टी जमा करने की अनुमति नही होनी चाहिए। 
    • विषेश अवकाश कर्इ संस्थाओं में एक मास के अनिवार्य वार्षिक अवकाश की व्यवस्था होती है। इन संस्थाओं में आकस्मिक तथा अर्जित अवकाश की दर कम कर दी जाती है। कर्इ संस्थाओं में आकस्मिक अवकाश तथा अर्जित अवकाश के एवज में वेतन दिया जाता है। यदि कर्मचारी अपनी अर्जित अवकाश का उयोग नही करते है तो उसे उसके सामान्य दर के वेतन से उतने दिनों का वेतन दे दिया जाता है। कर्इ संस्थाओं में विष्ेाश अवकाश, बीमारी की छुट्टी, अध्ययन अवकाश अथवा अर्ध-वेतन अवकाश की व्यवस्था भी है। 
    यह देखा गया है कि हमारी सामाजिक संस्थाओं ने कर्मचारियों के अवकाश की ओर कोर्इ विशेष ध्यान नही दिया है। यदि संस्था लंबे चौडे़ अवकाश न बनाना चहाती हो तो मोटे तौर पर उसे वर्ष में कम से कम कुल मिलाकर एक मास के अवकाश की व्यवस्था तो कर ही देनी चाहिए। जिस कर्मचारी को अवकाश की सुविधा मिलेगी, उसकी दक्षता बढे़गी और वह अधिक कार्य करेगा।

    कार्य की परिस्थितियाँ 

    कार्य की परिस्थितियों का प्रभाव कर्मचारियों के स्वास्थ्य, दक्षता और निष्पादन पर पड़ता है। प्रत्येक ऐसी संस्था को, जो कि वैतनिक कार्यकत्त्ााओं को नियुक्ति करती है अपने कर्मचारियों के लिए कार्य की समुचित परिस्थितियों की व्यवस्था करनी चाहिए। कार्य की परिस्थितियों में शामिल है- कार्य स्थल का पर्यावरण, जैसे प्रकाश, उचित तापमान, पानी, सफार्इ, शौचालय, आग से बचाव का प्रबंध, कैंटीन, विश्राम की सुविधा आदि। सेवाार्थियों के साथ भेंट करने और गुप्त वार्त्त्ाालाप के लिए संस्था में व्यवस्था होनी चाहिए।

    परिवीक्षा काल:नियुक्ति के बाद कर्मचारियों के लिए परिवीक्षा काल को संतोषजनक ढ़ग से पूरा करना अनिवार्य होता है। इस व्यवस्था ये कर्मचारी तथा दोनों को एक दूसरे के विषय में समुचित ज्ञान हो जाता है। यदि कोर्इ कर्मचारी परिवीक्षा-अवधि में संतोषजनक कार्य करता है तो उसकी नौकरी पक्की कर दी जाती है। किन्तु, परिवीक्षा संबंधी नियम विभिन्न संस्थाओं में विभिन्न पदों के लिए विभिन्न है। संस्थाओं को चाहिए कि नौकरी की शर्ते निर्धारित करते समय वे निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखे:-
    1. किन पदों के लिए परिवीक्षा काल की शर्त हो। 
    2. परिवीक्षा की अवधि कितनी हो। 
    3. इस अवधि को बढ़ाने की विधि। 
    4. परिवीक्षा काल में कर्मचारी के कार्य का मूल्यांकन और उसके पक्का करने की पद्धति। 
    नौकरी के स्वरूप और प्रकारों को ध्यान में रखकर परिवीक्षा काल तीन मास से दो वर्ष तक होता है। यह शर्त संस्था के उन कर्मचारियों पर भी लागू होनी, चाहिए जिनकों प्रोन्नति दी गर्इ हो।

    प्रोन्नति तथा पद पर पुष्टि :संस्था को प्रोन्नति तथा पुष्टि की शर्तो और विधि के विषय में नियम बनाने चाहिए, जिनकी जानकारी सब कर्मचारियों को हो। प्रोन्नति और पद पर पुष्टि शिक्षा स्तर, कार्य के अनुभव, कार्य निष्पादन के मूल्यांकन और अधिक दायित्व उठाने की क्षमता आदि के आधार पर होनी चाहिए। नये पदों को भरने के लिए संस्था में कार्य कर रहें कर्मचारी को प्रोन्नति के अवसर भी दिये जाने चाहिए। 

    वेतन तथा भत्ते:पदों के वेतनमान, उनके लिए निर्धारित शिक्षा स्तर कार्य के अनुभव की अवधि, दायित्व के स्वरूप आदि बातों को ध्यान में रखकर नियत करने चाहिए। प्रत्येक पद के लिए वेतनमान की न्यूनतम और अधिकतम सीमा होनी चाहिए, जिसमें अच्छे निष्पादन अथवा कार्य के फलस्वरूप वेतन-वृद्धि की व्यवस्था हो। कर्मचारियों के संतोषजनक कार्य के फलस्वरूप उनकी नियुक्ति बनाये रखने और उसके वेतन में वृद्धि के लिए व्यवस्था होनी चाहिए। किसी पद के लिए वेतनमान निर्धारित करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
    1. कर्मचारी के दायित्व की मात्रा
    2. सेवा को समुदाय का लाभ
    3. दायित्व निभाने के लिए कुशलता की मात्रा। 
    4. सरकारी तथा स्वैच्छिक संस्थाओं में ऐसे तुलनात्मक पदों के लिए नियत वेतनमान, 
    5. पद के लिए निर्धारित शिक्षा, प्रशिक्षण तथा पिछले अनुभव की शर्ते। 
    सरकारी संस्थाओं में कर्मचारियों को दिये जाने वाले महँगार्इ भत्त्ो, मकान किराया, प्रतिपूरक भत्त्ो आदि की दरों के अनुसार स्वैच्छिक संस्थाओं में भी भत्ते देने का प्रयत्न करना चाहिए। वेतन और भत्ते का भुगतान मास के समाप्त होने के एक सप्ताह के भीतर कर्मचारियों को कर देना चाहिए। कर्इ संस्थाएँ कर्मचारियों को वेतन और भत्त्ाा देने में विलम्ब कर देती है। जहाँ तक सम्भव हो वेतन और भत्त्ों के भुगतान में विलम्ब नही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त भविष्य निधि और सेवा निवृत्ति उपदान की व्यवस्था करने का यत्न भी संस्था को करना चाहिए। ऐसी सुविधाएँ देने से कर्मचारियों मे कार्य के प्रति रूचि बनी रहेगी और वे संस्था संस्था की सेवा में टिके रहेगें।

     दण्ड, सेवा-निवृित्त्ा तथा छँटनी :प्राय: यह देखने में आया है कि स्वैच्छिक संस्थाओं में कार्यकर्त्त्ाा इसलिए काम नही करना चाहते है कि वहाँ सेवा सुरक्षा नही है। संस्था के लिए सुनिश्चितकार्यकत्त्ााओं की नियुक्ति के लिए यह जरूरी है कि संस्था में दंड़ देने, सेवा निवृित्त्ा, छटनी और त्याग पत्र देने के लिए नियम बनाये जायें। इन नियमों में निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए:- 
    1. किस कर्मचारी को कौन अधिकारी, कब, कैसे और कितना दंड दे सकता है, 
    2. अपनी सेवा की शर्तो के विषय में वह किस अधिकारी से अपील कर सकता है। 
    3. उसे त्याग-पत्र किसको देना चाहिए और उसकी सूचना अवधि कितनी होनी चाहिए। 
    4.  कर्मचारियों की छँटनी किन परिस्थितियों में हो सकती है और उसे मुआवजा किस दर से मिलना चाहिए, 
    5. कर्मचारी की किस आयु में सेवा-निवृित्त्ा होनी चाहिए और उसे क्या-क्या सुविधाएँ दी जानी चाहिए। 
    इन शर्तो का उल्लेख संस्था की नियम पुस्तिका में होना चाहिए ताकि प्रत्येक कर्मचारी को इसकी जानकारी प्राप्त हो सके। 

    मूल्यांकन और पर्यवेक्षण :कर्मचारियों के निष्पादन और उनके विकास के विषय में मूल्यांकन की व्यवस्था प्रत्येक संस्था को करनी चाहिए। कर्मचारियों को इस मूल्यांकन में भागीदार होना चाहिए। मूल्यांकन अभिलेख गुप्त रखना चाहिए। यदि कार्यकर्त्त्ाा में कुछ भी कमी का अनुभव हो तो उसके विषय में उसे बता देना चाहिए। मूल्यांकन का अधिकार एक से अधिक व्यक्ति को होना चाहिए। मूल्यांकन और पर्यवेंक्षण, कार्यकर्त्त्ाा के विकास और दायित्व को बेहतर तरीके से निभाने में उसके लिए सहायक सिद्ध होते है। 

    कार्मिक विधि :स्वैच्छिक संस्थाओं के नेताओं के विषय में प्राय: यह शिकायत की जाती है कि वे कार्मिको के काम की शर्तो के विषय में कोर्इ कायदा-कानून प्रयोग में नही लाते और अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों तथा पक्षपात के अनुसार कार्मिकों के विषय में सोंचते है। अब यह सम्भव नही है, क्योकि कार्मिकों के कार्य की शर्ते, वेतनमान, सेवा निवृित्त्ा, मुआवजा आदि के विषय में सरकार ने कानून बना दिये है। अब कार्मिकों के लिए श्रम-न्यायालयों के दरवाजे खुले है और वे संस्था से संतुष्ट न होने पर अपनी व्यथा निवारण के लिए कानून का सहारा ले सकते है। इसलिए यह आवश्यक है कि संस्थाओं को इन श्रम विधियों की जानकारी होनी चाहिए। 

    कार्मिक अभिलेख :संस्थाओं के लिए श्रम-विधियों का पालन करना अनिवार्य है। इसलिए उनकों चाहिए कि प्रत्येक कर्मचारी के विषय में कानून के अनुसार अभिलेख तैयार करे। कार्यकर्त्त्ाा की व्यक्तिगत फाइल में उसका प्रार्थना पत्र, नियुक्ति पत्र, उसकी शिक्षा और पिछले अनुभवों के विषय में प्रमाण-पत्रों की प्रमाणित प्रतिलिपियाँ, उसका अवकाश अभिलेख और सम्बन्धित पत्र व्यवहार, कर्मचारियों के मूल्यांकन का प्रतिवेदन आदि सम्मिलित होने चाहिए। कार्मिक अभिलेख कर्मचारी के साथ विवाद की हालत में बहुत उपयोगी सिद्व होगे। 

    सुनिश्चित और अनुभवी कर्मचारी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक संस्था को कार्मिक नीति निर्धारण करनी चाहिए, जिसमें काम काज की ऐसी शर्ते सम्मिलित हो, जो कार्यकत्त्ााओं को आकर्षित करे। वेतन, भत्त्ो, काम का समय, नियुक्ति, दंड देने आदि की शर्ते उस क्षेत्र में कार्य करने वाली दूसरी संस्थाओं की नीति और शर्तो से कम नही होनी चाहिए ताकि संस्था के कर्मचारी दूसरी संस्थाओं के कर्मचारियों से तुलना करके हीन भावना का अनुभव न करे।

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