शासन व्यवस्था , साविधान , शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंध
: विकास प्रक्रिया तथा विकास उद्योग- गैर-सरकारी संगठनों, स्वयं सहायता समूहों, विभिन्न समूहों और संघों, दानकर्त्ताओं, लोकोपकारी संस्थानों, संस्थागत एवं अन्य पक्षों की भूमिकाl)
संदर्भ
जेनेवा कन्वेंशन कहता है कि सरकार, समाज के संपूर्ण विकास के समस्त कार्यों को नहीं देख सकती है इसलिये कहीं न कहीं समाज को भी उसमें हिस्सेदार बनना चाहियेl इसके बाद से एनजीओ सामने आएlएनजीओ को समाज और सरकार के बीच की खाई को भरने की मंशा से लाया गया थाl उसे व्यक्ति और सरकार के बीच की कड़ी को जोड़ने के लिये सामने लाया गयाl यद्यपि एनजीओ को एक परोपकारी संस्था के रूप में माना गया था क्योंकि एनजीओ का शाब्दिक अर्थ होता है गैर-सरकारी संगठनl सर्वप्रथम यह अमेरिका में अस्तित्व में आया जहाँ इसे नॉन प्रॉफिट ओर्गेनाइज़ेशन(NPO) ही कहा जाता थाlभारत में इस समय लगभग 33 लाख एनजीओ हैंl इसका अर्थ हुआ कि औसतन लगभग 400 भारतीयों के पीछे एक स्वैच्छिक संगठन हैl सिर्फ दिल्ली के अंदर ही 76 हज़ार एनजीओ हैं लेकिन इनमें से कोई भी अपना लेखा-जोखा सरकार को नहीं देता हैl केरल में तो एनजीओ द्वारा सरकार को लेखा-जोखा न देने का बाकायदा प्रावधान भी हैlभारत में जितने प्राथमिक स्कूल नहीं हैं उससे कहीं ज़्यादा एनजीओ हैंl रूस के बाद भारत ही विश्व का ऐसा देश है जहाँ गैर-सरकारी और लाभ के बिना काम करने वाले सक्रिय संगठनों की संख्या सर्वाधिक हैl अतः प्रश्न उठता है कि इतने सारे संगठनों के बावजूद जनहित का मुद्दा मुरझाया क्यों है?सीबीआई की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में करीब 32 लाख 97 हज़ार एनजीओ हैं जिनमें से सिर्फ 3 लाख 700 ने ही अपने खर्च का लेखा जोखा सरकार को दिया है, बाकी के एनजीओ ने कोई बैलेंस शीट दाखिल नहीं की हैlसुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त नाराज़गी जताते हुए सरकार को कानून बनाने का सुझाव दिया है क्योंकि सरकारी पैसे का दुरुपयोग करने वाले NGO के लिये सरकारी गाइडलाइन प्रभावी नहीं हैंl कोर्ट ने केंद्र को NGO और स्वैच्छिक संस्थाओं को दिए जाने वाले सरकारी फंड के नियंत्रण को लेकर ऐसा कहा हैlअतः प्रश्न उठता है कि भारत में एनजीओ क्रियान्वयन को लेकर क्या-क्या समस्याएँ हैं और उनके सही विनियमन का क्या प्रावधान हो सकते हैं? इसी मुद्दे पर केंद्रित है यह परिचर्चाl एनजीओ- सामान्य परिचय द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब 1945 में यूएनओ की स्थापना हुई थी तो उसके चार्टर के अध्याय 10 के अनुच्छेद 71 में उन संगठनों की चर्चा की गई थी जो समाज के हितार्थ बिना लाभ की मंशा से सरकार के लोक कल्याणकारी काम करते हैंlएक वेलफेयर डेमोक्रेटिक स्टेट में जनहित के कार्यों में ऐसे संगठनों की भागीदारी होती है अतः इन्हें कर लाभ में सरकार की तरफ से छूट मिलती हैlभारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1) जनता को किसी संगठन के निर्माण का अवसर प्रदान करता है और जो संगठन जनहित के कार्य में संलग्न होता है उन्हें टैक्स में छूट भी दी जाती है किंतु उन्हें इंडियन सोसाइटी एक्ट-1860 के अंतर्गत रजिस्टर्ड होना चाहिएlएनजीओ की फोरेन डोनेशन भारत सरकार के विदेशी चंदा विनियामक अधिनियम, 1976 के तहत देखी जाती हैlइसके अतिरिक्त, राज्यों के भी अपने कानून हैं जिनके तहत एनजीओ पंजीकृत होते हैं, जैसे मुंबई सार्वजनिक ट्रस्ट, राजस्थान सोसाइटी एक्ट आदिl साथ ही, कुछ ट्रस्ट और सोसाइटीज़ भारतीय कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा-25 के तहत भी पंजीकृत होती हैंl
समस्याएं क्या हैं?
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि औसतन हर साल 950 करोड रुपए एनजीओ को दिये गएl यह बहुत बड़ी रकम हैl इतनी बड़ी रकम एनजीओ को जन हितार्थ दी जाती हैं लेकिन उसका क्या आउटपुट है, वह पैसा कहाँ खर्च होता है इसको देखने वाली कोई सशक्त एजेंसी नहीं है, यह एक बहुत बड़ी समस्या हैl 33 लाख में मात्र 3 लाख एनजीओ ही अपना रिटर्न भरते हैं यानी अधिकांश एनजीओ अपने आय-व्यय का ब्यौरा नहीं देते इसलिये उनके धन का सदुपयोग हुआ है कि नहीं यह पता ही नहीं चलता हैl यानी एनजीओ को दिये सरकारी धन का ऑडिट न होना एक बड़ी समस्या हैlसरकारी आँकड़ों के अनुसार 1970 तक देश में केवल 1.44 लाख समितियाँ पंजीकृत थीं, लेकिन जब भारत ने नई आर्थिक नीतियों को 90 के दशक में लागू किया उसके बाद एनजीओ की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई अतः यह चिंता अक्सर उभरती है कि इतने संगठन जनहित के कार्यों के लिये बने हैं या फिर नवउदारवादी हितों के संरक्षण के लियेlएक सैद्धांतिक समस्या यह दिखाई देती है कि भारत में जो भी एनजीओ बने हैं वे केवल इंडियन सोसाइटी एक्ट के अंतर्गत ही पंजीकृत नहीं हैं बल्कि राज्यों के कानून तथा भारतीय कंपनी अधिनियम की धाराओं के तहत भी पंजीकृत होते हैंl कहने का तात्पर्य यह है कि एनजीओ के पंजीकरण के नियमों में विभिन्नता है जो कि गलत प्रतीत होता हैlएक समस्या यह भी दिखाई देती है कि अंग्रेजों के ज़माने से चले आ रहे इंडियन सोसाइटी एक्ट,1860 जैसे कानूनों की जटिलता को कम करना और उन्हें तर्कसंगत बनाना ज़रूरी हैlएनजीओ के विदेशी चंदे लेने संबंधी नियमों को भी प्रासंगिक बनाते हुए उन्हें सख्ती से लागू किये जाने की ज़रूरत को महसूस किया जाता रहा है क्योंकि खुफिया रिपोर्ट के मुताबिक बहुत सारी विदेशी कंपनियाँ भारत में अपने हित साधने के लिये एनजीओ खोलकर अपने अनुकूल माहौल बनवाती हैंl साथ ही काले धन को भी सफेद करवाती हैंlकई देश भी भारत के आर्थिक विकास को अवरुद्ध करने हेतु भारत में एनजीओ खुलवाते हैं और उन्हें फंडिंग करते हैं जिसका कोई लेखा-जोखा नहीं होता और ये एनजीओ जल-जंगल-ज़मीन के नाम पर आदिवासियों को भड़काते भी हैं और माओवादी हिंसा भी करवाते हैंl
समाधान
सर्वप्रथम तो एनजीओ की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने हेतु इनके पंजीकरण के नियमों को सख्त किये जाने की ज़रूरत हैlजो एनजीओ बैलेंस शीट देकर अपना लेखा-जोखा न दें उनके खिलाफ वसूली के लिये सिविल और दीवानी कार्रवाई होlएनजीओ को नियमित करने, उनकी मान्यता व उन्हें फंड जारी करने से लेकर हिसाब- किताब लेने तक के दिशानिर्देश तय होंlएनजीओ को ऑडिट एकाउंट, इनकम टैक्स रिटर्न के अलावा काम करने के क्षेत्र और मुख्य कार्यकर्त्ताओं की जानकारी देना बाध्य किया जाएlएनजीओ को उसके अंदरूनी कामकाज और नैतिक स्टैंडर्ड के मूल्यांकन के बाद ही मान्यता दी जाएlमान्यता देने के बाद एनजीओ को मिलने वाले फंड के इस्तेमाल के मूल्यांकन के लिये त्रिस्तरीय ( थ्री टियर) छानबीन होlफंड का दुरुपयोग करने वाले एनजीओ और स्वैच्छिक संस्थाओं के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की जाएlहस्ताक्षरकर्त्ता सामूहिक रूप से फंड वापस करने के लिये जवाबदेह होlअगर सरकार किसी एनजीओ के प्रोजेक्ट से संतुष्ट नहीं होती या उसे लगता है कि गाइडलाइन का उल्लंघन हो रहा है तो तत्काल प्रभाव से फंड देने पर रोक लगाने का सरकार को अधिकार होना चाहियेlविदेशी चंदा विनियामक अधिनियम, 1976 राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा कानून है इसलिये इसे अत्यधिक सख्त बनाते हुए विदेशी चंदे पर निगरानी कड़ी करने की ज़रूरत हैlग्रामीण विकास मंत्रालय और कपार्ट को और अधिक चुस्त किये जाने की ज़रूरत है, क्योंकि कपार्ट को ही एनजीओ को सरकारी रकम देने तथा उसे ब्लैक लिस्ट करने का अधिकार हैlजो एनजीओ झूठी सूचनाओं के आधार पर सरकार से फंड ले, उसे ब्लैक लिस्ट किया जाना चाहियेlदेश के सभी एनजीओ को फिर से नीति आयोग में ऑनलाइन पंजीकरण कराना होगा और एनजीओ को एक यूनिक आईडी देने पर भी विचार किया जा सकता हैlकुल मिलाकर, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार सरकार को एनजीओ से संबंधित एक नया कानून लाने की ज़रूरत है जिसे सरकार ने भी स्वीकारा है और इस संदर्भ में काम हो रहा हैl कपार्ट (Council for Advancement of People`s Action and Rural Technology) जन सहयोग एवं ग्रामीण प्रौद्योगिकी विकास परिषद अर्थात् कपार्ट का गठन एक सितम्बर,1986 को किया गया थाl इसका मुख्यालय नई दिल्ली में हैl
इसका मुख्य कार्य ग्रामीण संवृद्धि के लिये परियोजनाओं के कार्यान्वयन में स्वैच्छिक कार्य को प्रोत्साहन देना और उसमें मदद करना हैl
कपार्ट ने 9 प्रादेशिक समितियाँ स्थापित की थीं जिन्हें अपने-अपने प्रदेशों में एनजीओ को 25 लाख रूपए तक के परिव्यय वाली परियोजनाओं को मंज़ूरी देने की शक्तियाँ प्राप्त थींl
कपार्ट की इन प्रादेशिक समितियों को मार्च 2012 में बंद कर दिया गया थाl
अब कपार्ट को फिर से ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन पुनार्गठित कर कार्यरत किया गया हैl
कपार्ट की स्थापना दो एजेंसियों को मिलाकर हुई है- 'काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ रूरल टेक्नोलॉजी' (सी.ए.आर.टी) तथा पीपुल्स एक्शन फॉर डेवलपमेंट इंडिया (पी.ए.डी.आई)l
कहने का तात्पर्य यह कि कपार्ट देश के सभी 33 लाख एनजीओ को धन उपलब्ध कराने का ज़िम्मा नहीं रखती है बल्कि सिर्फ ग्रामीण विकास और कृषि से जुड़े गैर-सरकारी संगठनों को धन मुहैया करवाने वाली संस्था हैl
निष्कर्ष
गैर-सरकारी संगठनों के प्रति भारतीय समाज की मुख्य शिकायतें विदेशी चंदा नियमन अधिनियम, 1976 एवं पंजीकरण के नियम के प्रावधानों का उल्लंघन, अपनी गतिविधियों तथा आय-व्यय का ब्यौरा न प्रस्तुत करना तथा सरकारी धन की हेराफेरी करना आदि हैl एनजीओ के इस तरह के कार्यों के परिणामस्वरूप देश को महत्त्वपूर्ण आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा है तथा एनजीओ के विकास अभियानों से राष्ट्रीय सुरक्षा भी खतरे में पड़ी हैl सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी टिप्पणी में विगत अप्रैल में कहा था कि एनजीओ को दिया गया फंड जनता का पैसा हैl जनता के पैसे का हिसाब रखा जाना चाहियेl जो इसका दुरुपयोग करें उस पर कार्रवाई होनी ज़रूरी हैl इसलिये एनजीओ के नियमन हेतु नए सिरे से एक सख्त कानून की आवश्यकता है जिसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ आम जन ने भी महसूस किया हैl अतः सरकार को इस दिशा में अविलम्ब महत्त्वपूर्ण कदम उठाने की ज़रूरत हैl
: विकास प्रक्रिया तथा विकास उद्योग- गैर-सरकारी संगठनों, स्वयं सहायता समूहों, विभिन्न समूहों और संघों, दानकर्त्ताओं, लोकोपकारी संस्थानों, संस्थागत एवं अन्य पक्षों की भूमिकाl)
संदर्भ
जेनेवा कन्वेंशन कहता है कि सरकार, समाज के संपूर्ण विकास के समस्त कार्यों को नहीं देख सकती है इसलिये कहीं न कहीं समाज को भी उसमें हिस्सेदार बनना चाहियेl इसके बाद से एनजीओ सामने आएlएनजीओ को समाज और सरकार के बीच की खाई को भरने की मंशा से लाया गया थाl उसे व्यक्ति और सरकार के बीच की कड़ी को जोड़ने के लिये सामने लाया गयाl यद्यपि एनजीओ को एक परोपकारी संस्था के रूप में माना गया था क्योंकि एनजीओ का शाब्दिक अर्थ होता है गैर-सरकारी संगठनl सर्वप्रथम यह अमेरिका में अस्तित्व में आया जहाँ इसे नॉन प्रॉफिट ओर्गेनाइज़ेशन(NPO) ही कहा जाता थाlभारत में इस समय लगभग 33 लाख एनजीओ हैंl इसका अर्थ हुआ कि औसतन लगभग 400 भारतीयों के पीछे एक स्वैच्छिक संगठन हैl सिर्फ दिल्ली के अंदर ही 76 हज़ार एनजीओ हैं लेकिन इनमें से कोई भी अपना लेखा-जोखा सरकार को नहीं देता हैl केरल में तो एनजीओ द्वारा सरकार को लेखा-जोखा न देने का बाकायदा प्रावधान भी हैlभारत में जितने प्राथमिक स्कूल नहीं हैं उससे कहीं ज़्यादा एनजीओ हैंl रूस के बाद भारत ही विश्व का ऐसा देश है जहाँ गैर-सरकारी और लाभ के बिना काम करने वाले सक्रिय संगठनों की संख्या सर्वाधिक हैl अतः प्रश्न उठता है कि इतने सारे संगठनों के बावजूद जनहित का मुद्दा मुरझाया क्यों है?सीबीआई की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में करीब 32 लाख 97 हज़ार एनजीओ हैं जिनमें से सिर्फ 3 लाख 700 ने ही अपने खर्च का लेखा जोखा सरकार को दिया है, बाकी के एनजीओ ने कोई बैलेंस शीट दाखिल नहीं की हैlसुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त नाराज़गी जताते हुए सरकार को कानून बनाने का सुझाव दिया है क्योंकि सरकारी पैसे का दुरुपयोग करने वाले NGO के लिये सरकारी गाइडलाइन प्रभावी नहीं हैंl कोर्ट ने केंद्र को NGO और स्वैच्छिक संस्थाओं को दिए जाने वाले सरकारी फंड के नियंत्रण को लेकर ऐसा कहा हैlअतः प्रश्न उठता है कि भारत में एनजीओ क्रियान्वयन को लेकर क्या-क्या समस्याएँ हैं और उनके सही विनियमन का क्या प्रावधान हो सकते हैं? इसी मुद्दे पर केंद्रित है यह परिचर्चाl एनजीओ- सामान्य परिचय द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब 1945 में यूएनओ की स्थापना हुई थी तो उसके चार्टर के अध्याय 10 के अनुच्छेद 71 में उन संगठनों की चर्चा की गई थी जो समाज के हितार्थ बिना लाभ की मंशा से सरकार के लोक कल्याणकारी काम करते हैंlएक वेलफेयर डेमोक्रेटिक स्टेट में जनहित के कार्यों में ऐसे संगठनों की भागीदारी होती है अतः इन्हें कर लाभ में सरकार की तरफ से छूट मिलती हैlभारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1) जनता को किसी संगठन के निर्माण का अवसर प्रदान करता है और जो संगठन जनहित के कार्य में संलग्न होता है उन्हें टैक्स में छूट भी दी जाती है किंतु उन्हें इंडियन सोसाइटी एक्ट-1860 के अंतर्गत रजिस्टर्ड होना चाहिएlएनजीओ की फोरेन डोनेशन भारत सरकार के विदेशी चंदा विनियामक अधिनियम, 1976 के तहत देखी जाती हैlइसके अतिरिक्त, राज्यों के भी अपने कानून हैं जिनके तहत एनजीओ पंजीकृत होते हैं, जैसे मुंबई सार्वजनिक ट्रस्ट, राजस्थान सोसाइटी एक्ट आदिl साथ ही, कुछ ट्रस्ट और सोसाइटीज़ भारतीय कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा-25 के तहत भी पंजीकृत होती हैंl
समस्याएं क्या हैं?
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि औसतन हर साल 950 करोड रुपए एनजीओ को दिये गएl यह बहुत बड़ी रकम हैl इतनी बड़ी रकम एनजीओ को जन हितार्थ दी जाती हैं लेकिन उसका क्या आउटपुट है, वह पैसा कहाँ खर्च होता है इसको देखने वाली कोई सशक्त एजेंसी नहीं है, यह एक बहुत बड़ी समस्या हैl 33 लाख में मात्र 3 लाख एनजीओ ही अपना रिटर्न भरते हैं यानी अधिकांश एनजीओ अपने आय-व्यय का ब्यौरा नहीं देते इसलिये उनके धन का सदुपयोग हुआ है कि नहीं यह पता ही नहीं चलता हैl यानी एनजीओ को दिये सरकारी धन का ऑडिट न होना एक बड़ी समस्या हैlसरकारी आँकड़ों के अनुसार 1970 तक देश में केवल 1.44 लाख समितियाँ पंजीकृत थीं, लेकिन जब भारत ने नई आर्थिक नीतियों को 90 के दशक में लागू किया उसके बाद एनजीओ की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई अतः यह चिंता अक्सर उभरती है कि इतने संगठन जनहित के कार्यों के लिये बने हैं या फिर नवउदारवादी हितों के संरक्षण के लियेlएक सैद्धांतिक समस्या यह दिखाई देती है कि भारत में जो भी एनजीओ बने हैं वे केवल इंडियन सोसाइटी एक्ट के अंतर्गत ही पंजीकृत नहीं हैं बल्कि राज्यों के कानून तथा भारतीय कंपनी अधिनियम की धाराओं के तहत भी पंजीकृत होते हैंl कहने का तात्पर्य यह है कि एनजीओ के पंजीकरण के नियमों में विभिन्नता है जो कि गलत प्रतीत होता हैlएक समस्या यह भी दिखाई देती है कि अंग्रेजों के ज़माने से चले आ रहे इंडियन सोसाइटी एक्ट,1860 जैसे कानूनों की जटिलता को कम करना और उन्हें तर्कसंगत बनाना ज़रूरी हैlएनजीओ के विदेशी चंदे लेने संबंधी नियमों को भी प्रासंगिक बनाते हुए उन्हें सख्ती से लागू किये जाने की ज़रूरत को महसूस किया जाता रहा है क्योंकि खुफिया रिपोर्ट के मुताबिक बहुत सारी विदेशी कंपनियाँ भारत में अपने हित साधने के लिये एनजीओ खोलकर अपने अनुकूल माहौल बनवाती हैंl साथ ही काले धन को भी सफेद करवाती हैंlकई देश भी भारत के आर्थिक विकास को अवरुद्ध करने हेतु भारत में एनजीओ खुलवाते हैं और उन्हें फंडिंग करते हैं जिसका कोई लेखा-जोखा नहीं होता और ये एनजीओ जल-जंगल-ज़मीन के नाम पर आदिवासियों को भड़काते भी हैं और माओवादी हिंसा भी करवाते हैंl
समाधान
सर्वप्रथम तो एनजीओ की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने हेतु इनके पंजीकरण के नियमों को सख्त किये जाने की ज़रूरत हैlजो एनजीओ बैलेंस शीट देकर अपना लेखा-जोखा न दें उनके खिलाफ वसूली के लिये सिविल और दीवानी कार्रवाई होlएनजीओ को नियमित करने, उनकी मान्यता व उन्हें फंड जारी करने से लेकर हिसाब- किताब लेने तक के दिशानिर्देश तय होंlएनजीओ को ऑडिट एकाउंट, इनकम टैक्स रिटर्न के अलावा काम करने के क्षेत्र और मुख्य कार्यकर्त्ताओं की जानकारी देना बाध्य किया जाएlएनजीओ को उसके अंदरूनी कामकाज और नैतिक स्टैंडर्ड के मूल्यांकन के बाद ही मान्यता दी जाएlमान्यता देने के बाद एनजीओ को मिलने वाले फंड के इस्तेमाल के मूल्यांकन के लिये त्रिस्तरीय ( थ्री टियर) छानबीन होlफंड का दुरुपयोग करने वाले एनजीओ और स्वैच्छिक संस्थाओं के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की जाएlहस्ताक्षरकर्त्ता सामूहिक रूप से फंड वापस करने के लिये जवाबदेह होlअगर सरकार किसी एनजीओ के प्रोजेक्ट से संतुष्ट नहीं होती या उसे लगता है कि गाइडलाइन का उल्लंघन हो रहा है तो तत्काल प्रभाव से फंड देने पर रोक लगाने का सरकार को अधिकार होना चाहियेlविदेशी चंदा विनियामक अधिनियम, 1976 राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा कानून है इसलिये इसे अत्यधिक सख्त बनाते हुए विदेशी चंदे पर निगरानी कड़ी करने की ज़रूरत हैlग्रामीण विकास मंत्रालय और कपार्ट को और अधिक चुस्त किये जाने की ज़रूरत है, क्योंकि कपार्ट को ही एनजीओ को सरकारी रकम देने तथा उसे ब्लैक लिस्ट करने का अधिकार हैlजो एनजीओ झूठी सूचनाओं के आधार पर सरकार से फंड ले, उसे ब्लैक लिस्ट किया जाना चाहियेlदेश के सभी एनजीओ को फिर से नीति आयोग में ऑनलाइन पंजीकरण कराना होगा और एनजीओ को एक यूनिक आईडी देने पर भी विचार किया जा सकता हैlकुल मिलाकर, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार सरकार को एनजीओ से संबंधित एक नया कानून लाने की ज़रूरत है जिसे सरकार ने भी स्वीकारा है और इस संदर्भ में काम हो रहा हैl कपार्ट (Council for Advancement of People`s Action and Rural Technology) जन सहयोग एवं ग्रामीण प्रौद्योगिकी विकास परिषद अर्थात् कपार्ट का गठन एक सितम्बर,1986 को किया गया थाl इसका मुख्यालय नई दिल्ली में हैl
इसका मुख्य कार्य ग्रामीण संवृद्धि के लिये परियोजनाओं के कार्यान्वयन में स्वैच्छिक कार्य को प्रोत्साहन देना और उसमें मदद करना हैl
कपार्ट ने 9 प्रादेशिक समितियाँ स्थापित की थीं जिन्हें अपने-अपने प्रदेशों में एनजीओ को 25 लाख रूपए तक के परिव्यय वाली परियोजनाओं को मंज़ूरी देने की शक्तियाँ प्राप्त थींl
कपार्ट की इन प्रादेशिक समितियों को मार्च 2012 में बंद कर दिया गया थाl
अब कपार्ट को फिर से ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन पुनार्गठित कर कार्यरत किया गया हैl
कपार्ट की स्थापना दो एजेंसियों को मिलाकर हुई है- 'काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ रूरल टेक्नोलॉजी' (सी.ए.आर.टी) तथा पीपुल्स एक्शन फॉर डेवलपमेंट इंडिया (पी.ए.डी.आई)l
कहने का तात्पर्य यह कि कपार्ट देश के सभी 33 लाख एनजीओ को धन उपलब्ध कराने का ज़िम्मा नहीं रखती है बल्कि सिर्फ ग्रामीण विकास और कृषि से जुड़े गैर-सरकारी संगठनों को धन मुहैया करवाने वाली संस्था हैl
निष्कर्ष
गैर-सरकारी संगठनों के प्रति भारतीय समाज की मुख्य शिकायतें विदेशी चंदा नियमन अधिनियम, 1976 एवं पंजीकरण के नियम के प्रावधानों का उल्लंघन, अपनी गतिविधियों तथा आय-व्यय का ब्यौरा न प्रस्तुत करना तथा सरकारी धन की हेराफेरी करना आदि हैl एनजीओ के इस तरह के कार्यों के परिणामस्वरूप देश को महत्त्वपूर्ण आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा है तथा एनजीओ के विकास अभियानों से राष्ट्रीय सुरक्षा भी खतरे में पड़ी हैl सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी टिप्पणी में विगत अप्रैल में कहा था कि एनजीओ को दिया गया फंड जनता का पैसा हैl जनता के पैसे का हिसाब रखा जाना चाहियेl जो इसका दुरुपयोग करें उस पर कार्रवाई होनी ज़रूरी हैl इसलिये एनजीओ के नियमन हेतु नए सिरे से एक सख्त कानून की आवश्यकता है जिसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ आम जन ने भी महसूस किया हैl अतः सरकार को इस दिशा में अविलम्ब महत्त्वपूर्ण कदम उठाने की ज़रूरत हैl
very good
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