Line and Staff Agencies /रेखा और कर्मचारी एजेंसियां

सरकार के प्रशासनिक संगठन में तीन प्रकार की एजेंसियाँ शामिल हैं- रेखा, स्टाफ और सहायक । इन तीनों के बीच भेद इनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों की प्रकृति के अंतर में निहित है ।
रेखा एजेंसियाँ सांगठनिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष रूप से काम करती हैं । स्टाफ एजेंसियों रेखा एजेंसियों को उनकी गतिविधियों में सलाह और मदद देती हैं और सहायक एजेंसियां रेखा एजेंसियों को सामान्य गृह व्यवस्था सेवाएं देती हैं ।

एल.डी. व्हाइट के अनुसार- “सरकार का एक विस्तृत संगठन के माध्यम से होता है जो सार्वभौमिक श्रेष्ठ अधीनस्थ संबंध में एक दूसरे के साथ बँधे होते है; और विशिष्टीकरण के सिद्धांत पर आधारित होते हैं । केंद्रीय पदानुक्रम में रेखा शामिल होती है, रेखा की सहायता में कई इकाइयाँ होती हैं, कुछ परामर्शीय और तैयारी के कामों से जुड़ी होती हैं जिन्हें स्टाफ कहते हैं, कुछ गृह व्यवस्था कार्यों से जुड़ी होती हैं जिन्हें सहायक एजेंसियों कहते है 

कार्य केंद्रित पर्यवेक्षक:
1. काम पूरा करवाने के लिए भारी दबाव डालते हैं ।
2. अधीनस्थों पर कम विश्वास करते हैं ।
3. अधीनस्थों को कम स्वतंत्रता देते हैं ।
4. करीबी और विस्तृत पर्यवेक्षण करते हैं ।
5. निर्णय लेने की प्रक्रिया में अधीनस्थों को भागीदारी की अनुमति नहीं देते ।
6. दंड दने वाले और गलतियों के प्रति आलोचक होते हैं ।

7. ‘कार्य’ वाले काम पर ज्यादा ध्यान देते हैं ।
कर्मचारी केंद्रित पर्यवेक्षक:
1. अधीनस्थों पर कम दबाव डालते हैं ।
2. अपने अधीनस्थों पर विश्वास करते हैं और उनका विश्वास जीतते हैं ।
3. अधीनस्थों को अपने काम की गति को स्वयं ही निर्धारित करने देते हैं ।
4. सामान्य पर्यवेक्षण करते हैं ।
5. निर्णय लेने की प्रक्रिया में अधीनस्थों की अधिकतम भागीदारी की अनुमति देते हैं ।
6. जब अधीनस्थ गलती करते हैं या समस्याएँ होती हैं तो उनकी मदद करते हैं ।
7. जिम्मेदारी वाले काम पर ज्यादा जोर देते हैं ।
लोक प्रशासन में रेखा और स्टाफ का विभेद सैन्य प्रशासन से लिया गया जहाँ यह पहली बार विकसित हुआ था ।
रेखा-स्टाफ़ विभेद और इसकी प्रासंगिकता के बारे में निम्न कथनों पर ध्यान दिया जा सकता है:
फिफनर व प्रेस्थस- ”सामान्य रूप में स्टाफ और रेखा के बीच का अंतर कहता है कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम के बीच, प्रत्यक्ष रेखा होती है और अप्रत्यक्ष स्टाफ ।” ओलीवर शेल्डन- ”स्टाफ संगठन की व्याख्या विचार के लिए एक सुविचारित संगठन के रूप में की जा सकती है, ठीक उसी तरह, जैसे रेखा संगठन लागू करने वाला संगठन है ।” डिमॉक, डिमॉक व कोइंग- ”रेखा और स्टाफ के बीच उचित व्यवस्थापन प्रबंधन के सबसे मुश्किल क्षेत्रों में से एक है ।”
एल्बर्ट लेपावस्की- ”स्टाफ़ और रेखा सवर्गीय हैं, जो स्टाफ और रेखा के उच्चानीचक्रमिक संबंध में नहीं काम करते, बल्कि प्रमुख कार्यकारी के अंतर्गत प्राधिकार और जिम्मेदारी के समान धरातल पर काम करते हैं…. एक स्टाफ़कर्मी जो रेखा को निर्देश नहीं देता, प्रभाहीन है और एक रेखाकर्मी जो स्टाफ कार्य को जरा भी नहीं समझता वह भी एक असफलता है ।” कुंटज व ओ डौनेल- ”रेखा व स्टाफ प्राधिकार संबंधों का चरित्र चित्रण है न कि विभागीय गतिविधियाँ ।”

रेखा एजेंसियाँ (Line Agencies):

लोक सेवा में चार प्रकार की रेखा एजेंसियाँ होती हैं:
(a) सरकारी विभाग,
(b) लोक निगम,
(c) सरकारी कंपनियाँ,
(d) स्वतंत्र नियामक आयोग (IRC) ।
पहले तीन दुनिया के सभी देशों में पाए जाते हैं । जबकि चौथा (यानि, IRC) अमेरिका की प्रशासनिक व्यवस्था का खास लक्षण है ।
रेखा एजेंसियों के निम्न चारित्रिक लक्षण होते हैं:
(i) वे संगठन के सारभूत लक्ष्य को पूरा करने का काम प्रत्यक्ष रूप से करती हैं ।
(ii) उन्हें निर्णय लेने और आदेश व निर्देश जारी करने का प्राधिकार मिला होता है ।
(iii) वे जनता के सीधे संपर्क में आती हैं और उन्हें विभिन्न सेवाएँ देती हैं, व्यवहार का नियमन करती हैं और कर एकत्र करती हैं ।
इस प्रकार रेखा एजेंसियों स्वभाव से कार्यकारी होती हैं और प्रमुख कार्यकारी के प्रत्यक्ष नियंत्रण, निर्देशन और देखरेख में काम कर रहे कार्यात्मक जिम्मेदारी के अधीनस्थ विभाग हैं ।
एल.डी. व्हाइट के अनुसार रेखा एजेंसियों के मुख्य कार्यों में निम्न शामिल हैं:
(a) निर्णय लेना,
(b) जिम्मेदारी लेना,
(c) नीति और कार्यों की व्याख्या और बचाव करना,
(d) उत्पादन सँभालना और प्रभाविता और मितव्ययता की तलाश करना ।

स्टाफ़ एजेंसियाँ (Staff Agencies):

भारत सरकार की महत्वपूर्ण स्टॉफ एजेंसियां हैं:
1. कैबिनेट सचिवालय,
2. प्रधानमंत्री कार्यालय,
3. कैबिनेट समितियां,
4. योजना आयोग,
5. वित्त मंत्रालय,
6. कार्मिक मंत्रालय का प्रशासनिक निगरानी प्रभाग,
7. वित्त मंत्रालय की स्टॉफ निरीक्षण इकाई ।
फ़िफ़नर के अनुसार– स्टाफ एजेंसियां तीन प्रकार की होती हैं:
(i) सामान्य स्टाफ, जो आमतौर पर सलाह, सूचना संग्रहण और अनुसंधान आदि के जरिये प्रशासनिक कार्यों में प्रमुख कार्यकारी की मदद करता है । सामान्य स्टाफ का बुनियादी उद्देश्य प्रमुख कार्यकारी के लिए एक ‘छलनी और चिमनी’ के रूप में काम करना है ।
(ii) तकनीकी स्टाफ, जो तकनीकी मामलों में प्रमुख कार्यकारी को सलाह देता है और कार्यात्मक पर्यवेक्षण करता है । इसे विशेष स्टाफ या कार्यात्मक स्टाफ भी कहते हैं ।
(iii) सहायक स्टाफ, जो रेखा एजेंसियों को सामान्य गृह व्यवस्था सेवाएँ देता है ।
लेकिन एल.डी. व्हाइट और विलोबी स्टाफ एजेंसियों में सहायक एजेंसियों (यानी सहायक स्टाफ) को नहीं शामिल करते और उन्हें एक अलग और भिन्न इकाई मानते हैं । व्हाइट उन्हें ”सहायक सेवाएँ” कहते हैं, जबकि विलोबी उन्हें- ”संस्थागत या गृह व्यवस्था सेवाएँ” कहते हैं । जॉन गाँस उन्हें ”सहायक तकनीकी स्टाफ सेवाएँ” कहते हैं ।
स्टाफ एजेंसियों के निम्न चारित्रिक लक्षण हैं:
(i) वे गौण या समर्थक कार्य करते हैं, यानी सांगठनिक उद्देश्य की पूर्ति में रेखा की मदद करते हैं ।
(ii) उनके पास निर्णय लेने और आदेश व निर्देश जारी करने का प्राधिकार नहीं होता । उनकी भूमिका प्रकृति से परामर्शीय है और वे प्रभावित करती हैं, प्राधिकार का प्रयोग नहीं करतीं ।
(iii) वे जनता के प्रत्यक्ष संपर्क में नहीं आतीं । वे अज्ञात रूप से सक्रिय रहती हैं । अमेरिका की ब्राउनलो कमेटी (1937) के अनुसार, स्टाफ को अज्ञात रहने की लालसा होनी चाहिए ।

फ़िफ़नर कहते हैं कि स्टाफ एजेंसियों निम्न कार्य करती हैं:
(i) सलाह, शिक्षा और सुझाव,
(ii) तालमेल,
(iii) तथ्यान्वेषण और शोध,
(iv) संपर्क और सहकार,
(v) रेखा की सहायता,
(vi) रेखा से प्रत्यायोजित प्राधिकार का प्रयोग करना,
(vii) योजना निर्माण ।
मूनी के अनुसार- स्टाफ ”कार्यकारी के व्यक्तित्व का विस्तार है । इसका अर्थ है-अपनी योजनाओं को लागू करने में ज्यादा आँखों, ज्यादा कानों और ज्यादा हाथों का सहायता के लिए होना ।” फ़िफ़नर व प्रेस्थस स्टाफ को प्रमुख कार्यकारी के घनिष्ठ मित्र के रूप में वर्णित करते हैं ।

सहायक एजेंसियाँ (Auxiliary Agencies):

भारत सरकार की प्रमुख सहायक एजेंसियाँ निम्न हैं:
(a) केंद्रीय लोक निर्माण विभाग,
(b) कानून मंत्रालय,
(c) वित्त मंत्रालय,
(d) सूचना व प्रसारण मंत्रालय,
(e) संघ लोक सेवा आयोग,
(f) संसदीय मामलों का विभाग,
(g) आपूर्ति व सुपुर्दगी के महानिदेशक ।
स्टाफ एजेंसियों के समान, सहायक एजेंसियाँ भी सांगठनिक उद्देश्य पूर्ति में रेखा की सहायता करती हैं और जनता के प्रत्यक्ष संपर्क में नहीं आतीं ।
लेकिन वे निम्न रूपों में स्टाफ एजेंसियां से अलग हैं:
(i) स्टाफ एजेंसियाँ रेखा एजेंसियों को सलाह देती हैं जबकि सहायक एजेंसियाँ रेखा एजेंसियों को सामान्य गृह व्यवस्था सेवाएँ देती हैं ।
(ii) स्टाफ एजेंसियों की कोई कार्य संबंधी जिम्मेदारी नहीं होती, जबकि सहायक एजेंसियों की कार्य संबंधी जिम्मेदारियाँ होती हैं ।
(iii) स्टाफ एजेंसियाँ प्राधिकार प्रयोग नहीं करतीं और निर्णय नहीं लेतीं, जबकि सहायक एजेंसियाँ सीमित प्राधिकार प्रयोग करती हैं और अपने क्षेत्र में निर्णय लेती हैं ।
(iv) स्टाफ एजेंसियों के कार्य और अधिकार क्षेत्र सहायक एजेंसियों से ज्यादा और व्यापक हैं जो केवल रेखा एजेंसियों को कायम रखने से सरोकार रखती हैं ।

रेखा-स्टाफ द्वंद्व (Line Staff Conflict):

हालाँकि रेखा और स्टाफ एजेंसियाँ सभी सरकारी संगठनों के लिए अपरिहार्य हैं और उनका मकसद एक-दूसरे का पूरक बनना है । किंतु, उनके बीच के संबंध सदा शिष्ट और प्रसन्न नहीं रहते । व्यवहार में रेखा और स्टाफ इकाइयों के बीच के संबंध की पहचान द्वंद्व, टकरावों, तनावों, संदेहों इत्यादि से होती है ।
ऐसी विरोधी परिस्थिति के लिए जिम्मेदार कारण ये हैं:
(i) प्रमुख कार्यकारी के निकट होने के कारण स्टाफ एजेंसी रेखा एजेंसी के प्राधिकार को हड़पने का प्रयास करती हैं ।
(ii) रेखा और स्टाफ अधिकारियों के बीच आयु, स्थिति, दृष्टिकोण, अनुभव, तकनीकी योग्यता इत्यादि का अंतर रहता है ।
(iii) स्टाफ के लोग प्राय: ‘हवाई दृष्टिकोण’ अपनाते हैं, यानी वे रेखा के उन लोगों को अवास्तविक योजनाएं और विचार बताते हैं, जो स्वयं अपने दृष्टिकोण में व्यावहारिक होते हैं । परिणामत: वे उनके सुझावों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते, जो दोनों के बीच गलतफहमी और तनाव की ओर ले जाते हैं ।
(iv) रेखा अधिकारियों के बीच जिम्मेदारी से मुँह चुराने और गलतियों के लिए स्टाफ अधिकारियों को कोसने की प्रवृत्ति ।
(v) स्टाफ अधिकारी रेखा अधिकारियों के काम और प्रक्रियाओं में कमियाँ पाने लगते हैं ।
रेखा-स्टाफ संबंध में विरोध, प्रतिस्पर्धा और द्वेष को घटाने के उपाय हैं:
(i) प्रमुख कार्यकारी को रेखा और स्टाफ के लोगों की जिम्मेदारियों की प्रकृति को साफ तौर पर स्पष्ट कर देना चाहिए । यह उनकी गलतियों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराने में सक्षम बनाता है ।
(ii) भूमिकाएँ बदलने के अवसर पैदा करने चाहिए यानी, रेखा और स्टाफ के बीच नियमित तबादले होने चाहिए ।
(iii) प्रमुख कार्यकारी को दोनों को एक दूसरे से और दूसरे की परस्पर भूमिका से परिचित होने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । उसे सांगठनिक उद्देश्य और लक्ष्य की पूर्ति के लिए रेखा और स्टाफ अधिकारियों के बीच करीबी संबंध की वांछनीयता पर जोर देना चाहिए ।
(iv) रेखा के लोगों को स्टाफ के कामों में स्टाफ की रेखा के लोगों के काम में प्रशिक्षित करना चाहिए और यह उन्हें उनके कर्त्तव्यों और जिम्मेदारियों के उचित पहलुओं को जानने में सक्षम बनाता है ।
इसके अलावा रेखा-स्टाफ विवाद की समस्या से निपटने के लिए ‘मैट्रिक्स संगठन’ अपनाया जा सकता है ।

स्वतन्त्र नियामकीय आयोग (.Independent Regulatory Commission)


स्वतन्त्र नियामकीय आयोग  के  अर्थ एवं विशेषताएं (Independent Regulatory Commission: Meaning and Characteristics):
स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों की स्वतन्त्रता(Independence of Independent Regulatory Commissions):
स्वतन्त्र नियामकीय आयोग के कार्य(Functions of Independent Regulatory Commissions):
स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों की आलोचना(Criticism of the Independent Regulatory Commissions):
सूत्र अभिकरण का ही एक अन्य रूप ‘स्वतन्त्र नियामकीय आयोग’ है । इसका विकास संयुक्त राज्य अमेरिका की विशेष संवैधानिक प्रणाली से हुआ है । इन आयोगों की स्थापना का उद्देश्य समाज के शक्तिशाली आर्थिक वर्गों के कुछ क्रियाकलापों का नियमन कर सार्वजनिक हित की रक्षा व अभिवृद्धि करना है । औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप राज्य के कार्य क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि हुई जिसका स्वाभाविक परिणाम कार्यपालिका की शक्ति में अत्यधक वृद्धि के रूप में देखने को मिला । इन परिस्थितियों में विधायिका (कांग्रेस) ने कार्यपालिका (अमेरिकी राष्ट्रपति) की शक्तियों को नियन्त्रित करने हेतु जो मार्ग निकाला वह स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों का निर्माण था ।
स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों की रचना व्यवस्थापिका के कानूनों द्वारा की जाती है ये आयोग आर्थिक क्रियाकलापों के नियमन हेतु कार्यपालिका के नियन्त्रण से मुका रहते हैं । डिमॉक के अनुसार- ”इन आयोगों को स्वतन्त्र इसलिये नहीं कहा जाता है कि उन पर व्यवस्थापिका कार्यपालिका व न्यायपालिका का नियन्त्रण नहीं होता बल्कि इसलिए कि वे शासन के स्थापित निष्पादक विभागों की परिधि से बाहर होते हैं ।”
इन आयोग को नियामकीय इसलिए कहा जाता है, क्योंकि ये अस्वस्थ प्रतियोगिता को दूर करने के लिये नागरिकों के कुछ आर्थिक क्रियाकलापों का नियन्त्रण व नियमन करते हैं ।
स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों के लिये विभिन्न नामों का प्रयोग किया जाता रहा है । मुख्य कार्यपालिका के अधीन न होने के कारण इन्हें ‘शासन की शीर्षहीन शाखा’ (Headless Branch of the Government) कहा जाता है । इनके कार्य मिश्रित प्रकृति के होने के कारण इन्हें ‘शासन की चतुर्थ शाखा’ (Fourth Branch of the Government) भी कहा जाता रहा है ।
काँग्रेस द्वारा स्थापित व काँग्रेस के अधीन होने के कारण ये आयोग ‘काँग्रेस की भुजाएँ’ (Arms of the Congress) भी कहलाते हैं । ये आयोग स्वतन्त्र होते हैं, अंत: इन्हें ‘स्वायत्तता के द्वीप’ (Island of Autonomy) की संज्ञा भी दी जाती रही है ।
,फ्रांस और भारत से अलग संयुक्त राज्य अमेरिका में तीन प्रकार की लाइन एजेंसियाँ होती हैं- विभाग, सार्वजनिक निगम और स्वतंत्र नियामक आयोग । इन आयोगों की स्थापना सामाजिक हितों की सुरक्षा करने और उनको बढ़ावा देने के उद्देश्य से निजी आर्थिक गतिविधियों और निजी संपत्ति पर सार्वजनिक नियमन और नियंत्रण स्थापित करने के लिए की गई थी । पहले स्वतंत्र आयोग की स्थापना 1887 में की गई थी और इसका नाम था । अंतर-राज्यीय वाणिज्य आयोग । वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका में नौ आईआरसी हैं ।
इनका गठन निम्न कालक्रम में किया गया था:
(i) दि इंटरस्टेट कॉमर्स कमीशन (1887).
(ii) दि फेडरल रिजर्व बोर्ड (1913).
(iii) दि फेडरल ट्रेड कमीशन (1914).
(iv) दि फेडरल पावर कमीशन (1930).
(v) दि फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (1934) .
(vi) दि सिक्यूरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन (1934).
(vii) दि नेशनल लेबर रिलेशंस बोर्ड (1935).
(viii) दि यूनाइटेड स्टेट्‌स मारीटाइम कमीशन (1936).
(ix) दि सिविल एयरोनॉटिक्स बोर्ड (1940) .

स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(1) ये आयोग किसी भी विभाग के अंग रूप में निर्मित नहीं होते हैं, अत: ये कार्यपालिका के नियन्त्रण से भी मुक्त रहते हैं ।
(2) इन आयोगों की अध्यक्षता किसी व्यक्ति विशेष द्वारा नहीं वरन् एक मण्डल द्वारा की जाती है ।
(3) स्वतन्त्र नियामकीय आयोग अपनी नीतियों के निर्माण एवं वित्तीय प्रबन्ध को स्वयं नियन्त्रित करने की क्षमता रखते हैं ।
(4) ये आयोग मुख्य कार्यपालिका (राष्ट्रपति) के प्रति उत्तरदायी न होने के कारण शीर्ष विहीन कहलाते हैं ।
(5) ये आयोग प्रशासकीय कार्यों के साथ-साथ उर्द्ध-विधायी (Quasi-Legislative) एवं अर्द्ध-न्यायिक (Quasi-Judicial) कार्य भी सम्पन्न करते हैं ।
(6) इन आयोगों में सभी वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाता है । आयोग की सत्ता सदस्यों में बँटी रहती है ।
(7) आयोग के सदस्यों का कार्यकाल राष्ट्रपति के कार्यकाल से लम्बा होता है ।
राष्ट्रपति की पदावधि 4 वर्ष है, जबकि आयोगों का कार्यकाल 5 से 7 वर्ष होता है ।
(8) आयोगों को अपने कार्य के संचालन हेतु पूर्ण वित्तीय अधिकार प्रदान किये जाते हैं ।
(9) इन आयोगों में विशेषज्ञ कार्य करते हैं तथा इनका आकार अपेक्षाकृत छोटा होता है ।
स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों की स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में एल. डी. ह्वाइट लिखते हैं- ”ये आयोग अमेरिकी विधायिका अर्थात् काँग्रेस से स्वतन्त्र नहीं हैं क्योंकि काँग्रेस इनकी रचना करती है, उनको शक्ति प्रदान करती है तथा उनको प्रतिवर्ष धन देती है । वह सदस्यों को पदच्युत कर करती है । ….. ये आयोग न्यायपालिका से भी स्वतन्त्र नहीं हैं, क्योंकि यदि कोई पक्ष याचिका प्रस्तुत करें तो न्यायपालिका उसके निर्णयों की पुनर्समीक्षा करती है । ये आयोग राष्ट्रपति से भी पूरी तरह स्वतन्त्र नहीं हैं क्योंकि राष्ट्रपति सीनेट की स्वीकृति से इसके सदस्यों को मनोनीत करता है ।”

स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों द्वारा निम्नलिखित कार्य सम्पादित किये जाते हैं:
(i) इन आयोगों का प्रमुख कार्य समाज के हितों की रक्षा करना है ।
(ii) आयोगों द्वारा निजी उद्योगों व व्यक्तिगत सम्पत्ति का नियमन किया जाता है ।
(iii) जनता के हितों की हर सम्भव तरीके से रक्षा करना आयोग का कार्य है ।
(iv) व्यापार के क्षेत्र में कठोर नियन्त्रण रखना भी आयोग का दायित्व है ।
(v) आयोग देश में औद्योगिक प्रगति के कारण उत्पल होने वाली समस्याओं पर भी नियन्त्रण रखता है ।
स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है:
(1) आयोग विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका- इन तीनों में से किसी के प्रति भी उत्तरदायी नहीं है । यही कारण है कि उन्हें ‘अनुत्तरदायी के क्षेत्र’ (Areas of Unaccountability) एवं ‘अनुतरदायी आयोग’ (Irresponsible Commission) जैसे नामों से भी पुकारा जाता है ।
(2) आयोगों के कार्य-क्षेत्र में ऐसे बहुत से आर्थिक क्रियाकलाप आते हैं जिनके बारे में सरकारी विभाग भी कार्य करते हैं । ऐसे में कार्यों में दोहरापन आने की सम्भावना बनी रहती है ।
(3) कई बार आयोग के सदस्यों में तीव्र मतभेद होने के कारण संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । इससे प्रशासन में अराजकता उत्पन्न हो जाती है ।
(4) आयोगों का अस्तित्व ‘शक्ति-पृथक्करण के सिद्धान्त’ की अवहेलना करता प्रतीत होता है । एक ओर तो अमेरिकी संविधान में विधायिका कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को पृथक-पृथक रखा गया है । दूसरी ओर, आयोग में इन तीनों के कार्यों को परस्पर मिश्रित कर दिया गया है ।
(5) आयोगों के हाथों में विधायी, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के कार्य मिश्रित कर देने से नागरिकों की स्वतन्त्रता खतरे में पड़ जाती है ।
(6) कभी-कभी आयोगों एवं सामान्य निष्पादन विभागों के अधिकार क्षेत्रों में टकराव की स्थिति उत्पन हो जाती है ।
(7) आयोगो का स्वतन्त्र अस्तित्व प्रशासनिक समन्वय के मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है ।
(8) आयोगों पर एक आरोप यह लगाया जाता है कि वे राष्ट्रीय हित को भूलकर संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाते हैं तथा व्यक्तिगत हितों को अधिक महत्व देते हैं ।
उपर्युक्त आलोचनाओं के आधार पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आयोगों को किस सीमा तक स्वतन्त्र रखा जाये ? इस सम्बन्ध में रॉबर्ट ई. कुशमैन लिखते हैं- ”यदि नियामक आयोग पूर्णतया स्वतन्त्र रखे जाते हैं, तो वे अत्यन्त महत्वपूर्ण नीतिनिर्धारण सम्बन्धी तथा प्रशासनिक कार्य को सम्पन्न करने के मामले में पूर्णतका अनुतरदायी बन जाते हैं । इसके विपरीत यदि आयोगों की स्वतन्त्रता छीन ली जाती है तो यह उनके न्यायिक तथा अर्द्ध न्यायिक कार्यों के निष्पक्ष सम्पादन के लिए एक गम्भीर धमकी बन जाती है ।

पर्यावरण प्रदूषण : कानून

पर्यावरण प्रदूषण : कानून और क्रियान्वयन

भारत में पर्यावरण कानून का इतिहास 125 वर्ष पुराना है। प्रथम कानून सन् 1894 में पास हुआ था, जिसमें वायु प्रदूषण नियंत्रणकारी कानून थे। वर्तमान समय में पर्यावरण संरक्षण एक जटिल समस्या है तथा वह संपूर्ण विश्व के लिए चुनौती है। आज का बढ़ता हुआ प्रदूषण संपूर्ण मानव-जाति के लिए अभिशाप बन गया है। मानव के अतिरिक्त वन एवं वन्य जीव प्रदूषण से त्रस्त हैं। इसी कारण संविधान में पर्यावरण संरक्षण पर विशेष बल दिया जा रहा है तथा इस समस्या से निपटने के लिए समय-समय पर कई कानून भी बनाए गए हैं।भारत ही नहीं पूरा विश्व पर्यावरण के इस बिगड़ते स्वरूप से प्रभावित है विकासशील व अविकसित देश इस समस्या से अधिक प्रभावित हुए, क्योंकि एक तो उनकी अपेक्षाकृत भारी जनसंख्या, दूसरा आर्थिक अभाव, तीसरे अशिक्षा अथवा कम शिक्षा उन्हें इस संकट से सहज छुटकारा नहीं दिला सकती। आम जनता ने पहले प्रगति के नाम पर प्रशासन से और फिर कानून से संरक्षण चाहा। प्रगति के नाम पर प्रशासन स्वयं भी कहीं इस समस्या के उत्पन्न करने के कारणों से जुड़ा था। अतः वह कुछ कर न सका। हां, कानून ने राहत दी। विद्वान न्यायाधीशों और विधिवेत्ताओं ने आम नागरिक के लाभ के लिए जहां भी कानून में कुछ मिला, उसी से जनता को लाभ पहुंचाया। यहां तक कि भारत के संविधान की धाराओं में उनके हित में बहुत खोजकर उनका उपयोग किया।

पर्यावरण में कानून की आवश्यकता वस्तुतः आम नागरिक को दैनिक जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति, उनकी शुद्धता, प्रदूषण को रोकने तथा आगे न होने देने और विकृत पर्यावरण को सुधारने के लिए ही महसूस हुई। अतः पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण रोकने हेतु अनेक पिछले वर्षों में बने।

पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करने के लिए ब्रिटिशकाल में भी कुछ कानून बने थे, किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण संबंधी 40वां संविधान संशोधन इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम था। इसके अनुच्छेद 48ए के अनुसार सरकार देश के पर्यावरण संरक्षण और सुधार तथा वन एवं वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगी। 42वें संविधान के अच्छेद 51ए (जी) के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करें और उनका सुधार करें तथा प्राणीमात्र के प्रति दया-भाव रखें। भारत सरकार द्वारा सन् 1980 में पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना की गई।

जून, 1972 संपन्न मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टॉक होम में अधिवेशन के अनुसार, ‘मनुष्य अपने पर्यावरण का निर्माता एवं शिल्पकार दोनों ही है, जिससे उसे भौतिक स्थिरता मिलती है तथा बौद्धिक, नैतिक सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास का सुअवसर प्राप्त होता है।’ इस ग्रह पर मनुष्य जाति की एक लंबी तथा पीड़ादायक उत्क्रमण यात्रा में एक ऐसी स्थिति आ गई है, जब विज्ञान तथा तकनीक के तीव्र विस्तार द्वारा मनुष्य ने एक प्रकार से अपने पर्यावरण की कायापलट करने की क्षमता प्राप्त कर ली है। पर्यावरण प्रबंधन के लिए अनेक कानूनी प्रावधान बनाए गए हैं, जिनकी मुख्य भूमिकाएं हैं-

कानून पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले व्यक्ति को दंडित करता है।
कानून पीड़ित को क्षतिपूर्ति दिलवाता है।
कानून व्यक्ति की पर्यावरण पर दबाव बढ़ाने से वर्जित करता है।
कानून पर्यावरण संरक्षण नीति को कार्य रूप में परिमत करता है।
कानून विकास नीति को भी कार्य रूप में परिणत करता है।

भारत में पर्यावरण कानून का इतिहास 125 वर्ष पुराना है। प्रथम कानून सन् 1894 में पास हुआ था, जिसमें वायु प्रदूषण नियंत्रणकारी कानून थे। वर्तमान समय में पर्यावरण संरक्षण एक जटिल समस्या है तथा वह संपूर्ण विश्व के लिए चुनौती है। आज का बढ़ता हुआ प्रदूषण संपूर्ण मानव-जाति के लिए अभिशाप बन गया है। मानव के अतिरिक्त वन एवं वन्य जीव प्रदूषण से त्रस्त हैं। इसी कारण संविधान में पर्यावरण संरक्षण पर विशेष बल दिया जा रहा है तथा इस समस्या से निपटने के लिए समय-समय पर कई कानून भी बनाए गए हैं।

कानूनी स्थिति (Legal Status)


प्रदूषण से पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए संसार के कई देशों ने कानून को विनियमित करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रदूषण के साथ ही प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिए कानून बनाए हैं। पर्यावरण कानून का प्रमुख उद्देश्य वातावरण के प्रमुख उपहार को प्रदूषण से मुक्त रखना है। भारतीय समाज धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण यहां प्राकृतिक संसाधन (पौधे, जंतु, नदियां) पूजे जाते हैं। इसी कारण प्राचीनकाल में पर्यावरण रक्षा के लिए कानून नहीं बना था, लेकिन पिछली सदी से पर्यावरण को बचाने के लिए बड़ी संख्या में कानून बनाए गए। ये सभी कानून तीन श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं-

सामान्य कानून,
विनियामक कानून और
विशेष विधान।

1. सामान्य कानून (Common Laws) – सामान्य कानून इंग्लैंड के परंपरागत कानून की व्याख्या है। यह न्यायिक निर्णयों पर आधारित है और अभी तक लागू है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 372 कॉमन लॉ पर आधारित है। इस कानून के अंतर्गत किसी भी कार्य के विरुद्ध जो किसी संपत्ति या व्यक्ति की हानि का कारण बना हो, प्रभावित पक्ष क्षतिपूर्ति या निषेधाज्ञा या दोनों का दावा कर सकता है।

पर्यावरण प्रदूषण के लिए निम्न तीन कारक जिम्मेवार हैं-

(क) व्यवधान,
(ख) अतिक्रमण,
(ग) लापरवाही।

2. विशेष विधान (Specific Legislations) – जल एवं वायु प्रदूषण।

संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions) –भारतीय संविधान विश्व का पहला संविधान है, जिसमें पर्यावरण के लिए विशिष्ट प्रावधान है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना यह सुनिश्चित करती है कि हमारा देश समाजवादी समाज की अवधारणा पर आधारित है, जहां राज्य व्यक्ति की अपेक्षा सामाजिक समस्याओं को प्राथमिकता देता है। समाजवाद का मूल लक्ष्य है, सभी को जीवन का सुखद स्तर उपलब्ध करवाना, जो केवल एक प्रदूषण मुक्त वातावरण में ही संभव है।

3. प्रदूषण नियंत्रण कानून (Pollution Control Legislation)- भारत में प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए निम्न कानून बनाए गए हैं-
भारत में पर्यावरण कानून का इतिहास 125 वर्ष पुराना है। प्रथम कानून सन् 1894 में पास हुआ था, जिसमें वायु प्रदूषण नियंत्रणकारी कानून थे। वर्तमान समय में पर्यावरण संरक्षण एक जटिल समस्या है तथा वह संपूर्ण विश्व के लिए चुनौती है। आज का बढ़ता हुआ प्रदूषण संपूर्ण मानव-जाति के लिए अभिशाप बन गया है। मानव के अतिरिक्त वन एवं वन्य जीव प्रदूषण से त्रस्त हैं। इसी कारण संविधान में पर्यावरण संरक्षण पर विशेष बल दिया जा रहा है तथा इस समस्या से निपटने के लिए समय-समय पर कई कानून भी बनाए गए हैं।भारत ही नहीं पूरा विश्व पर्यावरण के इस बिगड़ते स्वरूप से प्रभावित है विकासशील व अविकसित देश इस समस्या से अधिक प्रभावित हुए, क्योंकि एक तो उनकी अपेक्षाकृत भारी जनसंख्या, दूसरा आर्थिक अभाव, तीसरे अशिक्षा अथवा कम शिक्षा उन्हें इस संकट से सहज छुटकारा नहीं दिला सकती। आम जनता ने पहले प्रगति के नाम पर प्रशासन से और फिर कानून से संरक्षण चाहा। प्रगति के नाम पर प्रशासन स्वयं भी कहीं इस समस्या के उत्पन्न करने के कारणों से जुड़ा था। अतः वह कुछ कर न सका। हां, कानून ने राहत दी। विद्वान न्यायाधीशों और विधिवेत्ताओं ने आम नागरिक के लाभ के लिए जहां भी कानून में कुछ मिला, उसी से जनता को लाभ पहुंचाया। यहां तक कि भारत के संविधान की धाराओं में उनके हित में बहुत खोजकर उनका उपयोग किया।

पर्यावरण में कानून की आवश्यकता वस्तुतः आम नागरिक को दैनिक जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति, उनकी शुद्धता, प्रदूषण को रोकने तथा आगे न होने देने और विकृत पर्यावरण को सुधारने के लिए ही महसूस हुई। अतः पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण रोकने हेतु अनेक पिछले वर्षों में बने।

पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करने के लिए ब्रिटिशकाल में भी कुछ कानून बने थे, किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण संबंधी 40वां संविधान संशोधन इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम था। इसके अनुच्छेद 48ए के अनुसार सरकार देश के पर्यावरण संरक्षण और सुधार तथा वन एवं वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगी। 42वें संविधान के अच्छेद 51ए (जी) के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करें और उनका सुधार करें तथा प्राणीमात्र के प्रति दया-भाव रखें। भारत सरकार द्वारा सन् 1980 में पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना की गई।

जून, 1972 संपन्न मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टॉक होम में अधिवेशन के अनुसार, ‘मनुष्य अपने पर्यावरण का निर्माता एवं शिल्पकार दोनों ही है, जिससे उसे भौतिक स्थिरता मिलती है तथा बौद्धिक, नैतिक सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास का सुअवसर प्राप्त होता है।’ इस ग्रह पर मनुष्य जाति की एक लंबी तथा पीड़ादायक उत्क्रमण यात्रा में एक ऐसी स्थिति आ गई है, जब विज्ञान तथा तकनीक के तीव्र विस्तार द्वारा मनुष्य ने एक प्रकार से अपने पर्यावरण की कायापलट करने की क्षमता प्राप्त कर ली है। पर्यावरण प्रबंधन के लिए अनेक कानूनी प्रावधान बनाए गए हैं, जिनकी मुख्य भूमिकाएं हैं-

कानून पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले व्यक्ति को दंडित करता है।
कानून पीड़ित को क्षतिपूर्ति दिलवाता है।
कानून व्यक्ति की पर्यावरण पर दबाव बढ़ाने से वर्जित करता है।
कानून पर्यावरण संरक्षण नीति को कार्य रूप में परिमत करता है।
कानून विकास नीति को भी कार्य रूप में परिणत करता है।

भारत में पर्यावरण कानून का इतिहास 125 वर्ष पुराना है। प्रथम कानून सन् 1894 में पास हुआ था, जिसमें वायु प्रदूषण नियंत्रणकारी कानून थे। वर्तमान समय में पर्यावरण संरक्षण एक जटिल समस्या है तथा वह संपूर्ण विश्व के लिए चुनौती है। आज का बढ़ता हुआ प्रदूषण संपूर्ण मानव-जाति के लिए अभिशाप बन गया है। मानव के अतिरिक्त वन एवं वन्य जीव प्रदूषण से त्रस्त हैं। इसी कारण संविधान में पर्यावरण संरक्षण पर विशेष बल दिया जा रहा है तथा इस समस्या से निपटने के लिए समय-समय पर कई कानून भी बनाए गए हैं।

कानूनी स्थिति (Legal Status)


प्रदूषण से पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए संसार के कई देशों ने कानून को विनियमित करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रदूषण के साथ ही प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिए कानून बनाए हैं। पर्यावरण कानून का प्रमुख उद्देश्य वातावरण के प्रमुख उपहार को प्रदूषण से मुक्त रखना है। भारतीय समाज धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण यहां प्राकृतिक संसाधन (पौधे, जंतु, नदियां) पूजे जाते हैं। इसी कारण प्राचीनकाल में पर्यावरण रक्षा के लिए कानून नहीं बना था, लेकिन पिछली सदी से पर्यावरण को बचाने के लिए बड़ी संख्या में कानून बनाए गए। ये सभी कानून तीन श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं-

सामान्य कानून,
विनियामक कानून और
विशेष विधान।

1. सामान्य कानून (Common Laws) – सामान्य कानून इंग्लैंड के परंपरागत कानून की व्याख्या है। यह न्यायिक निर्णयों पर आधारित है और अभी तक लागू है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 372 कॉमन लॉ पर आधारित है। इस कानून के अंतर्गत किसी भी कार्य के विरुद्ध जो किसी संपत्ति या व्यक्ति की हानि का कारण बना हो, प्रभावित पक्ष क्षतिपूर्ति या निषेधाज्ञा या दोनों का दावा कर सकता है।

पर्यावरण प्रदूषण के लिए निम्न तीन कारक जिम्मेवार हैं-

(क) व्यवधान,
(ख) अतिक्रमण,
(ग) लापरवाही।

2. विशेष विधान (Specific Legislations) – जल एवं वायु प्रदूषण।

संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions) –भारतीय संविधान विश्व का पहला संविधान है, जिसमें पर्यावरण के लिए विशिष्ट प्रावधान है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना यह सुनिश्चित करती है कि हमारा देश समाजवादी समाज की अवधारणा पर आधारित है, जहां राज्य व्यक्ति की अपेक्षा सामाजिक समस्याओं को प्राथमिकता देता है। समाजवाद का मूल लक्ष्य है, सभी को जीवन का सुखद स्तर उपलब्ध करवाना, जो केवल एक प्रदूषण मुक्त वातावरण में ही संभव है।

3. प्रदूषण नियंत्रण कानून (Pollution Control Legislation)- भारत में प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए निम्न कानून बनाए गए हैं-

जल प्रदूषण अधिनियम (The Water Prevention and Control of Pollution Amendment Act)


यह अधिनियम जल प्रदूषण की रोकथाम एवं नियंत्रण के लिए बनाया गया है। इसके माध्यम से बोर्डों का गठन किया गया है, जो जल प्रदूषण की रोकथाम व नियंत्रण करते हैं। अधिनियम द्वारा बोर्डों को अधिकार एवं कर्तव्य प्रदत्त किए गए हैं।

प्रदूषण से तात्पर्य जल का अशुद्धिकरण अथवा उसमें भौतिक, रासायनिक या जीव विज्ञानी परिवर्तन करना है अथवा सीवेज (Sewage) या कोई अन्य औद्योगिक, कृषि या किसी अन्य न्यायसंगत कार्य के लिए अयोग्य या पशु-पक्षी अथवा जलीय वनस्पति के लिए अयोग्य कर दें।

केंद्रिय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में एक पूर्णकालिक सभापित, 5 नामित अधिकारी, 5 नामित राज्य बोर्ड अधिकारी, 3 नामित गैर-सरकारी व्यक्ति, 2 नामित औद्योगिक इकाई प्रतिनिधि तथा 1 पूर्णकालिक सचिव होगा।

राज्य बोर्ड में एक पूर्णकालिक सभापित, 5 राज्य सरकार नामित अधिकारी, 5 नामित राज्य बोर्ड अधिकारी, 3 नामित गैर-सरकारी व्यक्ति, 2 नामित औद्योगिक इकाई प्रतिनिधि तथा 1 पूर्णकालिक सचिव होगा।

सदस्यों का कार्यकाल 3 वर्ष है।

बोर्ड की मीटिंग 3 मास में कम-से-कम एक बार होगी।

केंद्र विशेष कार्यों के लिए कमेटी बना सकता है, जिसमें बोर्ड तथा बाह्य दोनों प्रकार के व्यक्ति सदस्य हो सकते हैं।

केंद्रीय बोर्ड के कार्य-

i. केंद्र सरकार को जल प्रदूषण संबंधी सलाह देना।
ii. राज्य बोर्डों के कार्यों का एकीकरण।
iii. राज्य बोर्डों को जल प्रदूषण जांच और शोध-कार्य में सहायता प्रदान करना।
iv. जल प्रदूषण विशेषज्ञों की ट्रेनिंग।
v. जल प्रदूषण संबंधी जानकारी संचार माध्यमों द्वारा जनसाधारण को प्रदान करना।
vi. संबंधित तकनीकी व सांख्यिकी सूचना एकत्र, एकीकृत एवं प्रकाशित करना।
vii. सरकार की सहायता से जल में मानक करना तथा समय-समय पर उन्हें पुनरीक्षित करना।
viii. जल प्रदूषण रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम चलाना।

9. राज्य बोर्ड के कार्य-

i. राज्य सरकार के जल प्रदूषण रोकने के कार्यक्रम का संचालन।
ii. राज्य सरकार को जल प्रदूषण संबंधी सलाह देना।
iii. जल प्रदूषण संबंधी राज्य स्तर पर सूचनाएं एकत्र, एकीकृत एवं प्रकाशित करना।
iv. जल प्रदूषण रोकने के लिए अनुसंधान कराना।
v.विशेषज्ञों की ट्रेनिंग में केंद्रीय बोर्ड की सहायता करना।
vi. सीवेज तथा उत्सर्गों का उपचार की दृष्टि से निरीक्षण करना।
vii. जल प्रदूषण के मानक स्थापित एवं पुनरीक्षित करना।
viii. जल उपचार के कारगर व सस्ते तरीके निकालना।
ix. सीवेज तथा उत्सर्ग के उपयोग प्रयोग ज्ञात करना।
x. सीवेज एवं उत्सर्ग हटाने के उचित तरीके निकालना।
xi. उपचार के मानक स्थापित करना।
xii. सरकार को उन उद्योगों की जानकारी देना, जो हानिकारक उत्सर्ग बाहर छोड़ रहे हों।
10. बोर्ड के सदस्य, अधिकारी या अधिकृत व्यक्ति किसी भी उद्योग से उत्सर्ग जल का नमूना ले सकते हैं।
11. बोर्ड के सदस्य, अधिकारी या अधिकृत व्यक्ति किसी भी उद्योग का निरीक्षण कर सकते हैं।
12. किसी व्यक्ति को जानबूझकर कोई विषाक्त नशीला पदार्थ किसी जल धारा में निर्गत करने का अधिकार नहीं है।
13. नियमों का उल्लंघन करने पर तीन मास की कैद तथा जुर्माने या दोनों का प्रावधान हैं।
14. कंपनियों तथा सरकारी संस्थाओं द्वारा नियमों का उल्लंघन करने पर दंड का प्रावधान है।

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 (Environment Protection Act,1986)


केंद्र सरकार द्वारा पारित अधिनियम के प्रावधान इस प्रकार हैं-

‘पर्यावरण’ से तात्पर्य जल, वायु भूमि का अंतर्संबध मनुष्य, जीव, वनस्पति, सूक्ष्मजीवी तथा वन-संपदा से है।
‘पर्यावरण’ प्रदूषण से तात्पर्य किसी ठोस द्रव अथवा गैसीय पदार्थ से है, जो इतनी सांध्रता में हो कि पर्यावरण के लिए हानिकारक सिद्ध हो।
केंद्र सरकार के पर्यावरण संरक्षण संबंधी अधिकार-
i. पर्यावरण संरक्षण कार्य में राज्य सरकारों के कार्यों को नियमित करना।
ii. पर्यावरण संरक्षण के लिए राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम का आयोजन एनं निष्पादन करना।
iii. पर्यावरण गुणता के मानक निर्धारित करना।
iv. विभिन्न प्रदूषण स्रोतों से निर्गत होने वाले प्रदूषकों की अधिकतम प्रदूषणकारी सीमा निर्धारित करना।
v. उन क्षेत्रों का निर्धारण करना, जिनमें सुरक्षा उपायों के साथ विभिन्न औद्योगिक संस्थान स्थापित किए जा सकते हैं।
vi. पर्यावरण प्रदूषण के कारण होने वाली दुर्घटनाओं से बचाव के कारगर सुरक्षात्मक तरीके निर्धारित करना।
vii. घातक सामग्री को उठाने-रखने की सुरक्षात्मक कार्यविधि का निर्धारण।
viii. औद्योगिक प्रक्रियाओं, सामग्री आदि का पर्यावरण प्रदूषण की दृष्टि से निरीक्षण।
ix. पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम के लिए शोध कार्य करना।
x. उद्योग संस्थानों, उपकरणों, मशीनरी , औद्योगिक प्रक्रियाओं आदि का निरीक्षण।
xi. पर्यावरण प्रदूषण, शोध प्रयोगशालाओं की स्थापना/मान्यता प्रदान करना।
xii. पर्यावरण प्रदूषण संबंधी सूचना एकत्र, एकीकृत एवं प्रकाशित करना।
xiii. मैनुअल, गाइड बुक, कोड आदि तैयार करना।
xiv. पर्यावरण संरक्षण संबंधी अन्य समुचित कार्य।
4. पर्यावरण प्रदूषक उद्योगों को रोकने का आदेश देने के लिए सरकार सक्षम है।
5. केंद्र सरकार निम्न के मानक स्थापित करने के लिए सक्षम है।i. वायु, जल तथा मृदा के मानक।
ii. विभिन्न प्रदूषकों का अधिकतम अनुमन्य सांद्रण।
iii. घातक पदार्थों के उठाने, रखने के नियम।
iv. विभिन्न स्थानों पर घातक पदार्थों के प्रयोग पर रोक।
v. विभिन्न स्थानों पर उद्योग-धंधे लगाने पर रोक।
vi. दुर्घटना की रोकथाम की कार्यविधि।

6. कोई भी व्यक्ति कोई ऐसा कार्य या उद्योग स्थापित नहीं कर सकता, जिससे निर्गत होने वाला प्रदूषक अनुमन्य से अधिक हो।
7. सरकारी संस्थानों का निरीक्षण करने, नमूने लेने तथा उद्योग कार्य रोकने के लिए सक्षम है।
8. नियमों का उल्लंघन करने पर एक लाख रूपये तक जुर्माना व 5 वर्षा की कैद का प्रावधान है।
9. कंपनियों तथा सरकारी संस्थानों द्वारा नियमों का उल्लंघन करने पर दंड का प्रावधान है।

भारतीय वन अधिनियम, 1927 (Indian Forest Act, 1927)


भारतीय वन अधिनियम सन् 1927 में पारित किया गया था। भारतीय वन (संरक्षण) अधिनियम (Indian Forest Conservation Act, 1980) तथा वन संरक्षण नियम (Forest Conservation Rules, 1981) में पारित हुआ।

इसके नियम इस प्रकार हैं-

1.सन् 1927 में पारित मूल अधिनियम में वन-पशु अधिकारी, वन संपदा, नदी, वृक्ष, लकड़ी इत्यादि की अधिकृत परिभाषा दी गई हैं।2. सन् 1927 के अधिनियम के अनुसार सुरक्षित वन घोषित करने का अधिकार राज्य सरकारों को है।
3. सुरक्षित वनों के अंदर किसी जाति के किसी वृक्ष को राज्य सरकार सुरक्षित घोषित कर सकती है।
4. सुरक्षित वनों के नियमों का निर्धारण भी राज्य सरकारें कर सकती हैं, जो निम्न क्षेत्रों में होंगे-

i. वृक्ष तथा लकड़ी काटने संबंधी।
ii. सहवर्ती ग्रामों के वासियों को वन के भीतर उपलब्ध वन-संपदा को अपने उपयोग के लिए देने संबंधी।
iii. सहवर्ती वनों के भीतर खेती करने संबंधी।
iv. अग्निकांड संबंधी।
v. घास काटने संबंधी।vi. वनों के प्रबंधन संबंधी।
5. वृक्षों को नुकसान पहुंचाने पर छह मास की कैद या/और 500 रुपए तक जुर्माने का प्रावधान है।
6. राज्य सरकारें उद्घोषण द्वारा किसी भी वन का नियंत्रण सुरक्षा की दृष्टि से अपने हाथ में ले सकती हैं।
7. पालित पशुओं (Cattles) द्वारा वन सीमा का उल्लंघन (Trespass) करने पर मालिक पर आर्थिक जुर्माना किया जा सकता है तथा पशु को रोक पर रखा भी जा सकता है।

वन संरक्षण अधिनियम, 1980 (Forest Conservation Act, 1980)


इस अधिनियम में सन् 1988 में संशोधन किया गया था। इसके अनुसार –

राज्य सरकारें सुरक्षित वनों को असुरक्षित अथवा किसी अन्य वन को सुरक्षित घोषित कर सकती है।
सुरक्षित वनों के कुछ भाग आवश्यकता होने पर चाय, कॉफी, मसालों, रबर आदि के उत्पादन के लिए प्रयोग कराए जा सकते हैं।
केंद्र सरकार एडवाइजरी कमेटी (Advisory Commitees) बना सकती है, जो केंद्र सरकार के वनों के संबंध में नियम बना सकती है।
केंद्र सरकारें वन संबंधी नियम बना सकती है।

वन संरक्षण नियम, 1981 (Forest Conservation Rules, 1980)


उक्त नियम केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए हैं, जो नियम वन संरक्षण अधिनियम, 1980 द्वारा केंद्र सरकार को प्रदत्त अधिकारी के अनुरूप है।

1. एडवाइजरी कमेटी में निम्न सदस्य होंगे-
i. वनों का महानिरीक्षक – अध्यक्ष
ii. अतिरिक्त वन महानिरीक्षक – सदस्य
iii. संयुक्त कमिश्नर मृदा संरक्षण-सदस्य
iv. तीन प्रमुख वैज्ञानिक – सदस्य
v. उप-महानिरीक्षक- वन सचिव सदस्य

2. कमेटी के गैर सरकारी सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष होगा व उनके यात्रा एवं अन्य भत्ते सरकार द्वारा देय होंगे।
3. कमेटी निम्न प्रकार कार्य करेगी-

i. एक मास में कम-से-कम एक बार बैठक नई दिल्ली में या आवश्यकता होने पर देश में कहीं भी की जा सकती है।
ii. अध्यक्ष के न होने पर वरिष्ठतम व्यक्ति अध्यक्षता कर सकता है।

4. राज्य सरकारों द्वारा विचार के लिए प्रस्ताव भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण सचिव को दिए जाने चाहिए।
5. कमेटी निम्न बिंदुओं पर केंद्र सरकार को सुझाव देगी-
i. किसी वन भूमि, जो प्राकृतिक वन, नेशनल पार्क, वन्य प्राणी पार्क आदि में आती है, के गैर वन संबंधी उपयोग के बारे में।
ii. सुरक्षित वनों का कृषि, शरणार्थी निवास आदि के उपयोग के बारे में।
iii. राज्य सरकारों द्वारा उक्त संबंध में किए गए कार्यों की समीक्षा।
iv. पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव के बारे में।
v. केंद्र सरकार कमेटी के सुझाव मान भी सकती है एवं अन्य विशेष जांच करने के लिए अधिकृत है।

वन्य प्राणी सुरक्षा अधिनियम, 1972 (Wild Life Protection Act, 1972)


उक्त अधिनियम 1972 में पारित किया गया था। इसमें 1982, 1986, 1991 तथा 1993 में संशोधन किए गए।

इस अधिनियम में पशु, पशु पदार्थ (Animal Article), पकड़े हुए पशु (Captive Animal) आदि की समुचित परिभाषाएं दी गई हैं।
इसमें अन्य प्राणी संरक्षण निदेशक, सह-निदेशक, मुख्य वन्य-प्राणी वार्डन, वन्य प्राणी वार्डन तथा अन्य अधीनस्थ कर्मियों के चुनाव और नियुक्ति के निर्देश हैं।
केंद्र अथवा राज्य-स्तर पर वन्य-प्राणी एडवायरी बोर्ड निम्न प्रकार गठित होगा-
i. केंद्र अथवा राज्य सरकार का वन मंत्री-अध्यक्ष
ii. संबंधित विधान सभा के दो सदस्य-सदस्य
iii. राज्य अथवा केंद्र सरकार का वन सचिव-सदस्य
iv. राज्य सरकार का मुख्य वन अधिकारी-पदेन सदस्य
v. निदेशक द्वारा नामित अधिकारी-सदस्य
vi. मुख्य प्राणी वार्डन-पदेन सदस्य
vii. केंद्र अथवा राज्य सरकार द्वारा नामित 10 व्यक्ति, जो वन्य प्राणी संरक्षण अथवा जन-जातियों से संबंधित हों।
4. i. बोर्ड की बैठक वर्ष में कम-से-कम दो बार होगी।
iii. बोर्ड अपनी कार्यशैली तथा कोरम आदि स्वयं तय करेगा।

5. मुख्य वन प्राणी वार्डन द्वारा अनुमत स्थिति के अतिरिक्त किसी स्थिति में वन्य प्राणियों का शिकार करने की अनुमति नहीं है।
6. इस नियम द्वारा विशिष्ट प्रकार के पादपों (Specified Plants) को तोड़ने, झाड़ने, एकत्रित करने की अनुमति बिना केंद्र सरकार के नहीं मिल सकती।
7. बिना लाइसेंस के किन्ही विशिष्ट प्रकार के पादपों को रोपित नहीं कर सकता।
8. इस अधिनियम में एक केंद्रीय जू अधिकरण (Central Zoo Authority) के गठन का प्रावधान किया गया है, जो जू संबंधी कार्यों की देख-रेख करेगा?
9. वन्य प्राणी पदार्थ राष्ट्रीय संपत्ति हैं और उनका व्यापार करना दंडनीय होगा।
10. इस अधिनियम की अनुसूचियों में संरक्षित वन्य प्राणियों, पदार्थों, पादपों आदि की अनुसूची दी गई है।
11. नियमों का उल्लंघन करने पर तीन वर्ष की कैद तथा 25 हजार रुपये जुर्माने या दोनों तक का प्रावधान है।

मोटर गाड़ी अधिनियम, 1988 (Motor Vehicle Act, 1988)


भारतीय मोटर गाड़ी अधिनियम सर्वप्रथम 1914 में बनाया गया था। इसे 1939 में तथा फिर 1988 एवं 1994 में संशोधित किया गया। इस अधिनियम के 1994 तक संशोधित रूप के मुख्य तथ्य निम्न प्रकार हैं-

इस अधिनियम में 14 अध्याय तथा दो अनुसूचियां (SCHEDULES) हैं।
प्रारंभिक अध्याय में परिभाषाएं हैं तथा अन्य अध्यायों में सिलसिलेवार ढंग से ड्राइवर लाइसेंस, बसों के कंडक्टरों का पंजीकरण, मोटर गाड़ियों का पंजीकरण, यातायात नियंत्रण संबंधी नियम एवं शर्तें दी गई हैं।
राज्य स्तर की परिवहन संस्थाओं के नियमन के अधिकार एवं नियम एक अलग अध्याय में दिए गए हैं।
इस अधिनियम में मोटर गाड़ियों के उत्पादन, अनुरक्षण आदि के सामान्य सीमा बंधन भी निर्धारित किए गए हैं।
अन्य व्यक्ति (Third Party) द्वारा दुर्घटना में मोटरगाड़ी की हुई क्षति की पूर्ति के लिए की जाने वाली बीमा योजनाओं के नियम और शर्तें मोटर गाड़ी अधिनियम द्वारा ही नियंत्रित की जाती हैं।
इस अधिनियम में वर्णित नियमों का उल्लंघन होने पर निर्धारित दंड की प्रक्रिया अध्याय 13 में विस्तार से दी गई है।
मोटर गाड़ी अधिनियम के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के किसी व्यक्ति को चालक लाइसेंस नहीं दिया जा सकता। 20 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति किसी यातायात (Transport) गाड़ी का चालक लाइसेंस नहीं ले सकता।
पूर्ण स्थायी लाइसेंस लेने से पूर्व प्रशिक्षु लाइसेंस लेना होता है व पूर्ण स्थायी लाइसेंस 3 वर्ष के लिए मान्य होता है।
गाड़ियों के पंजीकरण के लिए अधिकृत पंजीकरण अधिकारी को आवेदन किया जाना चाहिए।
पंजीकरण 15 वर्षों के लिए मान्य होता है।
यातायात नियंत्रण की दृष्टि से मोटर गाड़ियों के खाली तथा भरे हुए भारों का निर्धारण कर पंजीकरण आदेश में दर्ज किया जाता है। इसका उल्लंघन करने पर दंड का प्रावधान है।
राज्य सरकारें इच्छित स्थानों पर इच्छित मोटर गाड़ियों के प्रवेश एवं चालन पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण प्रदूषण पर स्थायी अथवा अस्थायी रोक लगा सकती है।
दुर्घटना होने पर मोटर चालक को घायल व्यक्ति के उपचार में मदद करनी चाहिए, पुलिस को तुरंत सूचना देनी चाहिए तथा बीमा कंपनी को सूचना देनी चाहिए।
अधिकृत व्यक्तियों को अधिनियम में वर्णित सूचनाएं न देने पर 500 रुपए आर्थिक दंड का प्रावधान है।
अनधिकृत व्यक्ति द्वारा मोटर गाड़ी चालन करने पर तीन मास की कैद या 1000 रुपए आर्थिक दंड का प्रावधान है।
निर्धारित गति से अधिक गति पर मोटर चालन करने पर 1000 रुपए तक आर्थिक दंड खतरनाक विधि से मोटर चालन पर प्रथम बार में 6 मास का कारावास या और 1000 रुपए जुर्माना, अगले अपराध पर 2 वर्ष तक की कैद या 2000 रुपए जुर्माने का प्रावधान है। शराब पीकर गाड़ी चलाने पर पहली बार पकड़े जाने पर 6 माह की कैद व दूसरी बार में 3 वर्ष तक कैद हो सकती है।
शोर अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रदूषण करने वाले वाहन को चलाने पर पहली बार 500 रुपए तक व अगली बार 2000 रुपए तक जुर्माना किया जा सकता है।
पर्यावरण समस्याओं के प्रति जागरुकता उत्पन्न करने तथा पर्यावरण संरक्षण में जन भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा पर्यावरण अध्ययन को अनिवार्य विषय के रूप में विश्वविद्यालयों-विद्यालयों में सम्मिलित किया गया है।

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